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अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता दिवस (फोटो-लोकमत समाचार) |
आज 22 मई है । यह तिथि विश्व भर में अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता दिवस के रूप में मनाई जाती। अब यहां सोचने वाली बात यह है कि 21वीं शदी मानव सामने आखिर ऐसी कौन सी मजबूरियां या समस्यायें आ गयीं जिनके कारण उसे जैव विविधता संरक्षण दिवस मनाने को मजबूर होना पड़ा? आखिर शदियों पहले तक यहीं मजबूरियां और समस्यायें हमारे पूर्वजों के सामने क्यूं नहीं आयी? जबकि आज का मानव अपने पूर्वजों की अपेक्षा ज्ञान विज्ञानं के मामले में काफी सशक्त, विकसित, बुद्धिमान, और साधन सपन्न होने है? इन सबके बावजूद क्यूं मानव इन पर्यावरणीय समस्याओं को रोकने में नाकाम हो रहा है ? हमारे सामने ऐसे सैकड़ों यक्ष प्रश्न है जिनका उत्तर इंसान की कुछ गलतियां है जिसे वह पिछली एक शदी से निरंतर दुहराता आ रहा है।
यूँ तो जैव विविधता का और मानव सभ्यता का नाता सदियों पुराना। इंसान प्रकृति की गोद में खेलते खाते धीरे-धीरे विकास करता हुआ इतना साधन संपन्न और उपभोक्तावादी बन गया कि जिस प्रकृति की गोद में वह पलता बढ़ता आ रहा था उसी का उसने धीरे-धीरे विनाश करना शुरू कर दिया। मानव स्वयं को पृथ्वी पर मौजूद सबकी प्राणियों से बुद्धिमान समझने लगा और इस धरा पर मौजूद सभी संसाधनों के अंधाधुन विनाश और दोहन को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझने लगा। अपनी उपभोगक्तवादी लिप्सा के वशीभूत हो मानव ने प्राकृतिक संसाधनों का कुछ ही सालों में ऐसा अविवेकपूर्ण तरीके से दोहन किया कि जिसका दुष्परिणाम न केवल मानव को अपितु पूरी जैव प्रजातियों को भुगतना पड़ रहा है।
इससे पहले कि हम जैव विविधता के समक्ष उत्पन्न हुई समस्यायों और इसके संरक्षण के उपायों पर चर्चा करे हमारे लिए इस संकल्पना और इस को एक दिवस के रूप में मनाने के इतिहास और वर्तमान को जानना आवश्यक हो जाता है। जैव विविधता एक वैज्ञानिक संकल्पना है जिसका वैज्ञानिक अर्थ अत्यंत बृहत् है पर यदि हम इसे सामान्य शब्दों में कहे तो इसका सीधा सा अर्थ है "जीवित संसार की विविधताएं" अर्थात इस धरती पर समस्त जीवों (प्राणिजगत, जन्तुजगत, सूक्ष्म जीव, पेड़ पौधे आदि सभी) में जाने वाली विविधताएं।
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जैव विविधता |
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1980 में जाने-माने संरक्षण जीवविज्ञानी थॉमस यूजीन लॉवजॉय ने ‘बायोलोजिकल’ और ‘डायवर्सिटी’ शब्दों को आपस में मिलाकर ‘बायोलॉजिकल डायवर्सिटी’ या जैविक विविधता नामक एक नया शब्द प्रस्तुत किया। कुछ साल बाद 1985 में डब्ल्यू.जी.रोसेन ने इस शब्द को और संक्षिप्त कर एक नए शब्द ‘बायोडायवर्सिटी’ या जैव विविधता की खोज की।
1992 में ब्राज़ील के रियो डी जनेरियो में पर्यावरण और विकास पर आयोजित संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन जिसे हम "पृथ्वी सम्मेलन" के रूप में भी जानते है, में सभी देशों के नेताओं ने पहली बार "सतत विकास" की रणनीति पर सहमति व्यक्त की। सतत विकास दुनिया भर के लोगों की जरूरतों को पूरा करने का एक मात्र ऐसा तरीका है जो भविष्य की हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए पृथ्वी को स्वस्थ बनाए रखेने में मददगार है। इस पृथ्वी शिखर सम्मेलन में अनेक समझौतों पर सहमति बानी जिसमे सबसे प्रमुख था "जैविक विविधता पर कन्वेंशन "।
जैव विविधता पर अभिसमय 29 दिसंबर, 1993 को लागू हुआ और तबसे 29 दिसंबर को अंतर्राष्ट्रीय जैव-विविधता दिवस के रूप में नामित किया गया। सन् 2000 तक तो जैव विविधता दिवस को 29 दिसंबर को ही मनाया गया पर 2001 से इसे 22 मई को मनाया जाने लगा। प्रत्येक वर्ष अंतरराष्ट्रीय जैव-विविधता दिवस एक विशेष थीम पर केंद्रित होता है और उसी के अनुसार इसे पूरे विश्व में मनाया जाता है। इस साल के अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता दिवस की थीम " हमारे समाधान प्रकृति में हैं" ( Our solutions are in Nature ) है।
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2020 की थीम- प्रकृति में ही समाधान है |
पिछली दो शदियों से की गयी तकनीकि प्रगति के बावजूद भी आज पूरी दुनिया स्वस्थ वातावरण, पानी, भोजन, दवा, कपड़े, ईंधन इत्यादि के लिए पूरी तरह से अपने आसपास के जैवमंडल/पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर है। इंसान भले ही चाँद से होता हुआ मंगल और बृहस्पति पर जा रहा है पर उसकी मूलभूत आवश्यकताएं अभी भी प्रकृति द्वारा ही पूरी की जा रहीं है। आज मानव ने अपने द्वारा किया गए प्राकृतिक और जैव विविधता के विनाश के कारण अपने सामने अनेक विनाशकारी समस्याएं उत्पन्न कर ली है। इन समस्यायों का समाधान प्रकृति में ही निहित है। और ऐसे में 2020 का थीम आशा, एकजुटता और पूरी दुनिया के लोगों को एक साथ आकर काम करने के महत्व पर केंद्रित है।
आज अगर हम देंखे तो पाएंगे की मानव द्वारा किये गए निरंतर प्राकृतिक विनाश का परिणाम यह हुआ है कि पिछले कुछ सालों में धरती से कई प्रजातियां, जीव, वनस्पतियाँ विलुप्त हो चुकी है। और कई पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। निरंतर हो रहे प्रदूषण और जंगलों के विनाश से जैव विविधिता को खतरा पहुँच रहा है। प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग ने प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन जैसी अनेक विनाशकारक समस्याओं को जन्म दिया है। और इन्ही समस्याओं का परिणाम है कि पिछले कुछ वर्षों से हम प्राकृतिक आपदाओं की बारम्बारता और उनके द्वारा किये गये विनाश को महसूस कर रहे है।
इन समस्यायों के बारे में वैज्ञानिक निरंतर अपने शोध के माध्यम से मानव जाति को सतर्क करते आ रहे है। अध्ययन बताते हैं कि जैव विविधता के ह्रास के कारण प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है। क्लाइमेट चेंज और ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभावों से आने वाले वक़्त में पूरी मानवता के अस्तित्व को खतरा है। ऐसे में अब हमारे लिए जरुरी है कि हम अब से प्रकृति के साथ सद्भाव पूर्वक जीने को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनायें। साल 2020 अनेक कारणों से हमारे लिये रिफ्लेकशन, अवसर और समाधान का वर्ष है। ये साल मानव सभ्यता के इतिहास के सबसे भयानक सालों में से एक होने जा रहा है। आज पूरी दुनिया COVID-19 जैसी महामारी से लड़ने में व्यस्त है। ये महामारी भी एक प्रकार का प्राकृतिक प्रकोप ही है। जीवों और जंतुओं के जीवन के साथ बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप ने ऐसी कई महामारियों को जन्म दिया है जिनके कारण लाखों लोगों को अकस्मात अपनी जान से हाथ धोना पड़ जाता है।
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आर्द्र भूमि जैव विविधता |
यदि हम केवल कोविड-19 को ही लें तो पायेगें की अबतक इसके संक्रमण की वजह से ढाई लाख से भी अधिक लोग अपनी जान गंवा चुके हैं और आने वाले वक़्त में यह आंकड़ा कहा जाके रुकेगा इसका कोई अंदाजा नहीं है। इस महामारी से लड़ाई में आज मानव के लिए उसके द्वारा बनाये गए सभी घातक हथियार, एटम बम, विलासिता की चीजे कोई भी चीज काम नहीं आ रही है। यह केवल एक महामारी के प्रकोप का नतीजा है। यदि हम इससे और भी आगे जाकर देंखें तो पाते है कि प्रकृति को नुकसान पहुंचाने के कारण हर वर्ष इससे भी कई गुना ज्यादा लोगों की मौत होती है। एक अनुमान के मुताबित हर वर्ष केवल दूषित पानी से 35 लाख से भी ज्यादा लोगों की जान जाती है और वायु प्रदूषण से 70 लाख लोगअकाल मृत्यु के ग्रास हो जाते है।
ये आंकड़े तो केवल पानी और प्रदूषण से मरने वालो के है। ग्लोबल वार्मिंग और जलबायु परिवर्तन के कारन निरंतर आने वाली प्राकृतिक आपदाओं में हर साल करोड़ों लोग प्रभावित होते है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया भर में मरने वाले लोगों में करीब 23 फीसदी प्रदूषण का शिकार बनते हैं। अध्ययनों और सर्वेक्षणों में यह भी देखा गया है कि इसका सबसे ज्यादा खतरा न्यूनतम या मध्यम आय वाले देशों की आबादी को है, क्योंकि गरीब या विकासशील देशों में उस तरह की सुविधाएं नहीं हैं, जिनका लाभ विकसित देश उठाते हैं।
विकसित देशों ने प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। और धीरे धीरे इस दुनिया को ऐसे उपभोक्ता वादी बाजार में बदल दिया की मानव अब भौतिकता के अलावा प्रकृति के करीब जाने की सोच ही नहीं पाता है। मानव् की इसी लिप्सा और उपभोगवादी प्रवृती ने पूरी कायनात को खतरे में दाल दिया है। पर आज जब कोविड-19 के दर से पूरी दुनिया थम सी गयी है और लोग अपने अपने घरों में कैद है, तो अनेक मनुष्येतर प्राणियों खुलकर अपने आवास से बहार आ प्रकृति का आनंदले रहे हैं। प्रकृति खुद को और सुन्दर बनाने में लग गयी। ओज़ोन परत में काफी सुधार होने लगा है। वातावरण स्वत्छ होने। सैकड़ों मीलों से ही हिमालय की बर्फीली चोटियां दिखाई देने लगी है। पर ऐसी स्थिति तब बनी जब मानव जाति के ऊपर संकट आया और उसने खुद को समेट सा लिया। परन्तु जब मानव पर कोई संकट नहीं था और वह अपनी विनाशकारी गतिविधियों में संलिप्त था तब उसने प्रकृति और जीवों को संकट में डाला। वह निरंतर प्रकृति में मौजूद जल, जंगल और जमीन सब को निगलता चला गया।
यह स्थिति निश्चित रूप से वांछनीय नहीं है कि जब मनुष्य पर संकट न हो, तो मनुष्येतर प्राणी संकट में हों और जब मनुष्य संकट में हो, तो मनुष्येतर प्राणी मजे में हो। आज के वक्त में यह अत्यंत जरूरी है कि दोनों में सह-अस्तित्व हो और यह तभी संभव है, जब इंसान प्रकृति और जीवों के साथ अपने पूर्वजों की तरह सह-अस्तित्व को स्वीकार करेगा। अब से हमें यह समझाना होगा कि यदि हमने देर की और प्रकृति की इस जीवनदायी श्रृंखला को और भी खतरा पहुंचाया तो पृथ्वी पर व्याप्त जीवन की पूरी श्रृंखला ही गड़बड़ा जाएगी और पूरी सृष्टि के सामने बड़ा संकट पैदा हो जाएगा जिससे बचाना शायद हमारे लिए मुमकिन न हो। अंत में फिराक साहब का एक शेर है जो इस समस्या पर एक दम सटीक बैठता है -
4 comments
Click here for commentsExcellent post
ReplyTHANKS
Replyबहुत्र अच्छा लेखन।जैव विविधता के विभिन्न आयामों को वर्तमान के वैश्विक COVID-19 संकट से जोड़कर एक तार्किक आयाम प्रस्तुत करते हुए दार्शनिक एवम् वैज्ञानिक व्याख्या के लिए लेखक को साधुवाद।
Replyबहुत बहुत आभार भैया जी। बस ऐसे ही मार्गदर्शन करतें रहें।
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