गाँव में क्या है ? मशहूर शायर कृष्णबिहारी नूर की गजल ।

 


गाँव में क्या है शहर से बढ़ कर, चलिए चलकर गाँव में देखें;

पनघट और चौपाल का मंज़र, चलिए चलकर गाँव में देखें।

गोरी, घटाएँ, घूँघट, गागर, चलिए चलकर गाँव में देखें;

शर्त है लेकिन खूब सँभल कर चलिए, चलकर गाँव में देखें।

सादा जीवन, सच्चे दुख-सुख, गर्म आँसू, ठण्डी मुस्कानें;

उमड़ा हुआ एक प्यार का सागर, चलिए चलकर गाँव में देखें।

भूली-बिसरी तहज़ीबों के धुँधले-धुँधले नक्श-ओ-निगार;

क्या-क्या है पुरखों की धरोहर, चलिए चलकर गाँव में देखें।

शहरों में तो चढ़ जाता है पीतल पर सोने का पानी;

कंगन, झुमके, पायल, झूमर, चलिए चलकर गाँव में देखें।

सूरज रोज़ सवेरे उठकर करता है तैयार जिसे ख़ुद;

तारों जड़ी वो चाँद की चूनर, चलिए चलकर गाँव में देखें।

हिन्दू-मुस्लिम मिल के मनायें होली हो या ईद का मिलन;

त्योहारों के रूप उजागर, चलिए चलकर गाँव में देखें।

भेद-भाव से नाता तोड़ें लेकिन पक्के शेख़-ओ-बिरहमन;

दोनों मिलेंगे एक डगर पर, चलिए चलकर गाँव में देखें।

ऊँचे मकानों में न मिलेंगे, पीपल-बरगद-नीम के साये;

चौखट-चौखट धूप के तेवर, चलिए चलकर गाँव में देखें।

बच्चे-बूढ़े, नर और नारी, सब ही मिलें उल्लास से भरे;

धरती की पूजा के अवसर, चलिए चलकर गाँव में देखें।

बच्चे हमें देखें जो अचानक, मारे खुशी के ताली बजायें;

फेंक के साकित झील में कंकर, चलिए चलकर गाँव में देखें।

दुनिया भर की सारी झीलें ‘नूर’ निछावर हों सब जिस पर;

ममता का वह मानसरोवर, चलिए चलकर गाँव में देखें।


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