क्रांतिकारी पं. राम प्रसाद बिस्मिल (RAMPRASAD BISMIL) का फांसी से पहले आत्मकथा का अंतिम लेख।।


राम प्रसाद 'बिस्मिल' भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की क्रान्तिकारी धारा के एक प्रमुख सेनानी थे। उनका जन्म 11 जून 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुुुर में हुुुआ था। आज ही के दिन उन्ह्हें 30 वर्ष की आयु में ब्रिटिश सरकार ने गोरखपुर जेल में फांसी दे दी। वह मैनपुरी षड्यन्त्रकाकोरी-काण्ड जैसी कई क्रांतिकारी घटनाओं में शामिल थे। वह हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के सक्रिय सदस्य भी थे। 

Pt RAM PRASAD BISMIL
राम प्रसाद 'बिस्मिल'



बिस्मिल इनका उर्दू उपनाम था जिसका अर्थ होता है " आत्मिक रूप से आहत"। बिस्मिल क्रांतिकारी होने के साथ साथ एक लेखक, अनुवादक एवं कवि भी थे।  उन्होंने कई किताबों का अनुवाद एवं रचना भी की। इनकी कई किताबों को अंग्रेज सरकार ने जब्त कर लिया। विस्मिल "राम" और "अज्ञात" उपनाम से भी लेख लिखा करते थे। जेल में ही उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी। 

16 दिसम्बर 1927 को बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा का आखिरी अध्याय (अन्तिम समय की बातें) पूर्ण करके जेल से बाहर भिजवा दिया। 18 दिसम्बर 1927 को उन्होंने माता-पिता से अन्तिम मुलाकात की। सोमवार 19 दिसम्बर 1927 (पौष कृष्ण एकादशी विक्रमी सम्वत् 1984) को प्रात:काल 6 बजकर 30 मिनट पर गोरखपुर की जिला जेल में उन्हें फाँसी दे दी गयी। 

बिस्मिल और उनके साथियों के विचारों को जानना आज के हर भारतीय के लिए तब और जरूरी हो जाता हैं जब क्रांति और राष्ट्रवाद के नाम पर हिंदुस्तान की युवा नश्ल के बहकने का खतरा मंडरा रहा हो। अपनी फांसी से महज तीन दिन पहले बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा का अंतिम हिस्सा " अंतिम समय की बाते" लिखी। उसे यहां हू-ब-हू पेश किया जा रहा है-

आज १६ सितंबर, १९२७ को निम्नलिखित पंक्तियों का उल्लेख कर रहा हूँ, जबकि १९ सितंबर, १९२७ सोमवार (पौष कृष्ण ११ संवत् १९८४ वि.) को साढ़े छह बजे प्रातकाल इस शरीर को फाँसी पर लटका देने की तिथि निश्चित हो चुकी है। अतएव नियत समय पर इहलीला सँवरण करनी होगी। यह सर्वशक्तिमान प्रभु की लीला है। सब कार्य उसकी इच्छानुसार ही होते हैं। यह परमपिता परमात्मा के नियमों का परिणाम है कि किस प्रकार किसको शरीर त्यागना होता है। 

मृत्यु के सकल उपक्रम निमित्त मात्र हैं। जब तक कर्म क्षय नहीं होता, आत्मा को जन्म-मरण के बंधन में पड़ना ही होता है, यह शास्त्रों का निश्चय है। यद्यपि यह बात वह परब्रह्म ही जानता है कि किन कर्मों के परिणामस्वरूप कौन सा शरीर इस आत्मा को ग्रहण करता होगा, किंतु अपने लिए यह मेरा दृढ़ निश्चय है कि मैं उत्तम शरीर धारण कर नवीन शक्तियों सहित अति शीघ्र ही पुन भारतवर्ष में ही किसी निकटवर्ती संबंधी या इष्ट मित्र के गृह में जन्म ग्रहण करूँगा, क्योंकि मेरा जन्म-जन्मांतर उद्देश्य रहेगा कि मनुष्य मात्र का सभी प्रकृति-पदार्थों पर समानाधिकार प्राप्त हो। कोई किसी पर हुकूमत न करे। सारे संसार में जनतंत्र की स्थापना हो। वर्तमान समय में भारतवर्ष की अवस्था बड़ी शोचनीय है।

Ram prasad bismil Autobiography
बिस्मिल की आत्मकथा



 अतएव लगातार कई जन्म इसी देश में ग्रहण करने होंगे और जब तक कि भारतवर्ष के नर-नारी पूर्णतया सर्वरूपेण स्वतंत्र न हो जाएँ, परमात्मा से मेरी यह प्रार्थना होगी कि वह मुझे इसी देश में जन्म दे, ताकि उसकी पवित्र वाणी-वेद वाणी- का अनुपम घोष मनुष्य मात्र के कानों तक पहुँचाने में समर्थ हो सकूँ। संभव है कि मैं मार्ग-निर्धारण में भूल करूँ, पर इसमें मेरा विशेष दोष नहीं, क्योंकि मैं भी तो अल्पज्ञ जीव मात्र ही हूँ। भूल न करना केवल सर्वज्ञ से ही संभव है। हमें परिस्थितियों के अनुसार ही सब कार्य करने पड़े और करने होंगे। परमात्मा अगले जन्म में सुबुद्धि प्रदान करे, ताकि मैं जिस मार्ग का अनुसरण करूँ, वह त्रुटि रहित ही हो। अब मैं उन बातों का भी उल्लेख कर देना उचित समझता हूँ, जो काकोरी षड्यंत्र के अभियुक्तों के संबंध में सेशन जज के फैसला सुनाने के पश्चात्घ टित हुईं। ६ अप्रैल, सन् १९२७ को सेशन जज ने फैसला सुनाया था।

 १८ जुलाई, सन् १९२७ को अवध चीफ कोर्ट में अपील हुई। इसमें कुछ सजाएँ बढ़ीं और एकाध की कमी भी हुई। अपील होने की तारीख से पहले मैंने संयुक्त प्रांत के गवर्नर की सेवा में एक मेमोरियल भेजा था, जिसमें प्रतिज्ञा की थी कि अब भविष्य में क्रांतिकारी दल से कोई संबंध न रखूगा। इस मेमोरियल का जिक्र मैंने अपनी अंतिम दया-प्रार्थना पत्र में, जो मैंने चीफ कोर्ट के जजों को दिया था, कर दिया था, किंतु चीफ कोर्ट के जजों ने मेरी किसी प्रकार की प्रार्थना स्वीकार न की। मैंने स्वयं ही जेल से अपने मुकदमे की बहस लिखकर भेजी, जो छापी गई। जब यह बहस चीफ कोर्ट के जजों ने सुनी, उन्हें बड़ा संदेह हुआ कि बहस मेरी लिखी हुई न थी। 

इन तमाम बातों का नतीजा यह निकला कि चीफ कोर्ट अवध द्वारा मुझे महाभयंकर षड्यंत्रकारी की पदवी दी गई। मेरे पश्चात्ताप पर जजों को विश्वास न हुआ और उन्होंने अपनी धारणा को इस प्रकार प्रकट किया कि यदि यह (रामप्रसाद) छूट गया तो फिर वही कार्य करेगा। बुद्धि की प्रखरता तथा समझ पर प्रकाश डालते हुए मुझे निर्दयी हत्यारे के नाम से विभूषित किया गया। लेखनी उनके हाथ में थी, जो चाहे सो लिखते, किंतु काकोरी षड्यंत्र का चीफ कोर्ट का आद्योपांत फैसला पढ़ने से भलीभाँति विदित होता है कि मुझे मृत्यु-दंड किस खयाल से दिया गया। यह निश्चय किया गया कि रामप्रसाद ने सेशन जज के विरुद्ध अपशब्द कहे हैं, खुफिया विभाग के कार्यकर्ताओं पर लांछन  लगाए गए अर्थात अभियोग के समय जो अन्याय  होता था, उसके विरुद्ध आवाज उठाई है, अतएव रामप्रसाद सबसे बड़ा गुस्ताख मुलजिम है। अब माफी चाहे वह किसी रूप में माँगे, नहीं दी जा सकती। चीफ कोर्ट से अपील खारिज हो जाने के बाद यथानियम प्रांतीय गवर्नर तथा फिर वायसराय के पास दया-प्रार्थना की गई। रामप्रसाद बिस्मिल, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, रोशनसिंह तथा अशफाकउल्ला खाँ के मृत्युदंड को बदलकर अन्य दूसरी सजा देने की सिफारिश करते हुए संयुक्त प्रांत की कौंसिल के लगभग सभी निर्वाचित हुए मेंबरों ने हस्ताक्षर करके निवेदन- पत्र दिया। मेरे पिता ने ढाई सौ रईस, ऑनरेरी मजिस्ट्रेट तथा जमींदारों के हस्ताक्षर से एक अलग प्रार्थना-पत्र भेजा, किंतु श्रीमान सर विलियम मेरिस की सरकार ने एक न सुनी। उसी समय लेजिस्लेटिव असेंबली तथा कौंसिल ऑफ स्टेट के ७८ सदस्यों ने हस्ताक्षर करके वायसराय के पास प्रार्थना- पत्र भेजा कि काकोरी षड्यंत्र के मृत्युदंड पाए हुओं को मृत्युदंड की सजा बदलकर दूसरी सजा कर दी जाए, क्योंकि दौरा जज ने सिफारिश की है कि यदि ये लोग पश्चात्ताप करें तो सरकार दंड कम दे। चारों अभियुक्तों ने पश्चात्ताप प्रकट कर दिया है। किंतु वायसराय महोदय ने भी एक न सुनी।

इस विषय में माननीय पं. मदनमोहन मालवीयजी ने तथा असेंबली के कुछ अन्य सदस्यों ने वायसराय से मिलकर भी प्रयत्न किया था कि मृत्युदंड न दिया जाए। इतना होने पर सबको आशा थी कि वायसराय महोदय अवश्यमेव मृत्युदंड की आज्ञा रद्द कर देंगे। इसी हालत में चुपचाप विजयदशमी से दो दिन पहले जेलों को तार भेज दिए गए कि दया नहीं होगी। सबकी फाँसी की तारीख मुकर्रर हो गई। जब मुझे सुपरिटेंडेंट जेल ने तार सुनाया, तो मैंने भी कह दिया कि आप अपना काम कीजिए किंतु सुपरिटेंडेंट जेल के अधिक कहने पर एक तार दया-प्रार्थना का सम्राट के पास भेज दिया, क्योंकि यह उन्होंने एक नियम सा बना रखा है कि प्रत्येक फाँसी के कैदी की ओर से जिसकी दया-भिक्षा की अरजी वायसराय के यहाँ से खारिज हो जाती है, वह एक तार सम्राट के नाम से प्रांतीय सरकार के पास अवश्य भेजते हैं। कोई दूसरा जेल सुपरिटेंडेंट ऐसा नहीं करता। उपरोक्त तार लिखते समय मेरा कुछ विचार हुआ कि प्रिवी-कौंसिल इंग्लैंड में अपील की जाए।

 मैंने श्रीयुत मोहनलाल सक्सेना वकील लखनऊ को सूचना दी। बाहर किसी को वायसराय द्वारा अपील खारिज करने की बात पर विश्वास भी न हुआ। जैसे- तैसे करके श्रीयुत मोहनलाल द्वारा प्रिवी-कौंसिल में अपील कराई गई। नतीजा तो पहले से मालूम था। वहाँ से भी अपील खारिज हुई। यह जानते हुए कि अँगरेजी सरकार कुछ भी न सुनेगी, मैंने सरकार को प्रतिज्ञा-पत्र क्यों लिखा क्यों अपीलों पर अपीलें तथा दया-प्रार्थनाएँ की इस प्रकार से प्रश्न उठ सकते हैं। 

मेरी समझ में सदैव यही आया कि राजनीति एक शतरंज के खेल के समान है। शतरंज के खेलनेवाले भलीभाँति जानते हैं कि आवश्यकता होने पर किस प्रकार अपने मोहरे मरवा देने पड़ते हैं। बंगाल ऑर्डिनेंस के कैदियों के छोड़ने या उन पर खुली अदालत में मुकदमा चलाने के प्रस्ताव जब असेंबली में पेश किए गए, तो सरकार की ओर से बड़े जोरदार शब्दों में कहा गया कि सरकार के पास पूरा सबूत है। खुली अदालत में अभियोग चलाने से गवाहों पर आपत्ति आ सकती है। यदि ऑर्डिनेंस के कैदी लेखबद्ध प्रतिज्ञा-पत्र दाखिल कर दें कि वे भविष्य में क्रांतिकारी आंदोलन से कोई संबंध न रखेंगे, तो सरकार उन्हें रिहाई देने के विषय में विचार कर सकती है। 

बंगाल में दक्षिणेश्वर तथा शोभा बाजार बम केस ऑर्डिनेंस के बाद चले खुफिया विभाग के डिप्टी सुपरिंटेंडेंट के कत्ल का मुकदमा भी खुली अदालत में हुआ, और भी कुछ हथियारों के मुकदमे खुली अदालत में चलाए गए, किंतु कोई एक भी दुर्घटना या हत्या की सूचना पुलिस न दे सकी। काकोरी षड्यंत्र केस पूरे डेढ़ साल तक अदालतों में चलता रहा। सबूत की ओर से लगभग तीन सौ गवाह पेश किए गए। कई मुखबिर तथा इकबाली खुले तौर से घूमते रहे, पर कहीं कोई दुर्घटना या किसी को धमकी देने की कोई सूचना पुलिस ने न दी।

 सरकार की इन बातों की पोल खोलने की गरज से मैंने लेखबद्ध बंधेज सरकार को दिया। सरकार के कथानुसार जिस प्रकार बंगाल ऑर्डिनेंस के कैदियों के संबंध में सरकार के पास पूरा सबूत था और सरकार उनमें से अनेक को भयंकर षड्यंत्रकारी दल का सदस्य तथा हत्याओं का जिम्मेदार समझती और कहती थी, तो इसी प्रकार काकोरी के षड्यंत्रकारियों के लेखबद्ध-प्रतिज्ञा करने पर कोई गौर क्यों न किया बात यह है कि जबरा मारे रोने न देय। मुझे तो भलीभाँति मालूम था कि संयुक्त प्रांत में जितने राजनैतिक अभियोग चलाए जाते हैं, उनके फैसले खुफिया पुलिस के इच्छानुसार लिखे जाते हैं। बरेली पुलिस कांस्टेबलों की हत्या के अभियोग में नितांत निर्दोष नवयुवकों को फँसाया गया और सी.आई.डी. वालों ने अपनी डायरी दिखलाकर फैसला लिखाया। काकोरी षड्यंत्र में भी अंत में ऐसा ही हुआ। सरकार की सब चालों को जानते हुए भी मैंने सब कार्य उसकी लंबी-लंबी बातों की पोल खोलने के लिए ही किए। काकोरी के मृत्युदंड पाए हुओं की दया-प्रार्थना न स्वीकार करने का कोई विशेष कारण सरकार के पास नहीं। 

सरकार ने बंगाल ऑर्डिनेंस के कैदियों के संबंध में जो कुछ कहा था, जो काकोरीवालों ने किया। मृत्युदंड को रद्द कर देने से देश में किसी प्रकार की शांति भंग होने अथवा कोई विप्लव हो जाने की संभावना न थी। विशेषतया जबकि देश भर के सब प्रकार के हिंदू-मुसलिम असेंबली के सदस्यों ने इसकी सिफारिश की थी। षड्यंत्रकारियों की इतनी बड़ी सिफारिश इससे पहले कभी नहीं हुई। किंतु सरकार तो अपना पासा सीधा रखना चाहती है। उसे अपने बल पर विश्वास है। सर विलियम मेरिस ने ही स्वयं शाहजहाँपुर तथा इलाहाबाद के हिंदू-मुसलिम दंगे के अभियुक्तों के मृत्यु-दंड रद्द किए हैं, जिनको कि इलाहाबाद हाईकोर्ट से मृत्युदंड ही देना उचित समझा गया था  और उन लोगों पर दिन-दहाड़े हत्या करने के सीधे सबूत मौजूद थे। 

ये सजाएँ ऐसे समय माफ की गई थी, जबकि नित्य नए हिंदू-मुसलिम दंगे बढ़ते ही जाते थे। यदि काकोरी के कैदियों को मृत्युदंड माफ करके, दूसरी सजा देने से दूसरों का उत्साह बढ़ता तो क्या इसी प्रकार मजहबी दंगों के संबंध में भी नहीं हो सकता था मगर वहाँ तो मामला कुछ और ही है, जो अब भारतवासियों के नरम से नरम दल के नेताओं के भी शाही कमीशन के मुकर्रर होने और उनमें एक भी भारतवासी के न चुने जाने, पार्लियामेंट में भारत सचिव लार्ड बर्कनहेड के तथा अन्य मजदूर दल के नेताओं के भाषणों से भलीभाँति समझ में आया है कि किस प्रकार भारतवर्ष को गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहने की चालें चली जा रही हैं। मैं प्राण त्यागते समय निराश नहीं हूँ कि हम लोगों के बलिदान व्यर्थ गए। मेरा तो विश्वास है कि हम लोगों की छिपी हुई आहों का ही यह नतीजा हुआ कि लार्ड बर्कनहेड के दिमाग में परमात्मा ने एक विचार उपस्थित किया कि हिंदुस्तान के हिंदू-मुसलिम झगड़ों का लाभ उठाओ और भारतवर्ष की जंजीरें और कस दो। गए थे रोजा छोड़ने नमाज गले पड़ गई।

भारतवर्ष के प्रत्येक विख्यात राजनैतिक दल ने और हिंदुओं के तो लगभग सभी तथा मुसलमानों के भी अधिकतर नेताओं ने एक स्वर होकर रायल कमीशन की नियुक्ति तथा उसके सदस्यों के विरुद्ध घोर विरोध किया है और अगली कांग्रेस (मद्रास) पर सब राजनैतिक दल के नेता तथा हिंदू- मुसलमान एक होने जा रहे हैं। वायसराय ने जब हम काकोरी के मृत्युदंड वालों की दया-प्रार्थना अस्वीकार की थी, उसी समय मैंने श्रीयुत मोहनलालजी को पत्र लिखा था कि हिंदुस्तानी नेताओं को तथा हिंदू मुसलमानों को अगली कांग्रेस पर एकत्रित हो हम लोगों की याद मनानी चाहिए। सरकार ने अशफाकउल्ला को रामप्रसाद का दाहिना हाथ करार दिया। 

अशफाकउल्ला कट्टर मुसलमान होकर पक्के आर्य-समाजी रामप्रसाद का क्रांतिकारी दल के संबंध में यदि दाहिना हाथ बन सकते हैं, तब क्या भारतवर्ष की स्वतंत्रता के नाम पर हिंदू-मुसलमान अपने निजी छोटे-छोटे फायदों का खयाल न करके आपस में एक नहीं हो सकते परमात्मा ने मेरी पुकार सुन ली और मेरी इच्छा पूरी होती दिखाई देती है। मैं तो अपना कार्य कर चुका। मैंने मुसलमानों में से एक नवयुवक निकालकर भारतवासियों को दिखला दिया, जो सब परीक्षाओं में पूर्णतया उत्तीर्ण हुआ।

 अब किसी को यह कहने का साहस न होना चाहिए कि मुसलमानों पर विश्वास न करना चाहिए। पहला तजुर्बा था, जो पूरी तौर से कामयाब हुआ। अब देशवासियों से यही प्रार्थना है कि यदि वे हम लोगों के फाँसी पर चढ़ने से जरा भी दुखित हुए हों, तो उन्हें यही शिक्षा लेनी चाहिए कि हिंदू-मुसलमान तथा सब राजनैतिक दल एक होकर कांग्रेस को अपना प्रतिनिधि मानें। जो कांग्रेस तय करे, उसे सब पूरी तौर से माने और उस पर अमल करें। ऐसा करने के बाद वह दिन बहुत दूर न होगा जबकि अँगरेजी सरकार को भारतवासियों की माँग के सामने सिर झुकाना पड़े और यदि ऐसा करेंगे तब तो स्वराज्य कुछ दूर नहीं। क्योंकि फिर तो भारतवासियों को काम करने का पूरा मौका मिल जाएगा। 

हिंदू-मुसलिम एकता ही हम लोगों की मददगार तथा अंतिम इच्छा है, चाहे वह कितनी कठिनता से क्यों न प्राप्त हो। जो मैं कह रहा हूँ वही श्री अशफाकउल्ला खाँ वारसी का भी मत है, क्योंकि अपील के समय हम दोनों लखनऊ जेल में फाँसी की कोठरियों में आमने-सामने कई दिन तक रहे थे। आपस में हर तरह की बातें हुई थीं। गिरफ्तारी के बाद से हम लोगों की सजा बढ़ने तक श्री अशफाकउल्ला खाँ की बड़ी भारी उत्कट इच्छा यही थी कि वही एक बार मुझसे मिल लेते, जो परमात्मा ने पूरी कर दी।

श्री अशफाकउल्ला खाँ तो अँगरेजी सरकार से दया-प्रार्थना करने पर राजी ही न थे। उनका तो अटल विश्वास यही था कि खुदाबंद करीम के अलावा किसी दूसरे से दया-प्रार्थना न करनी चाहिए परंतु मेरे विशेष आग्रह से ही उन्होंने सरकार से दया-प्रार्थना की थी। इसका दोषी मैं ही हूँ, जो मैंने अपने प्रेम पवित्र अधिकारों का उपयोग करके श्री अशफाकउल्ला खाँ को दृढ़ निश्चय से विचलित किया। मैंने एक पत्र द्वारा अपनी भूल स्वीकार करते हुए भ्रातृ-द्वितीया के अवसर पर गोरखपुर जेल से श्री अशफाक को पत्र लिखकर क्षमा-प्रार्थना की थी। परमात्मा जाने कि वह पत्र उनके हाथों तक पहुँचा भी या नहीं। खैर, परमात्मा की ऐसी ही इच्छा थी कि हम लोगों को फाँसी दी जाए, भारतवासियों के जले हुए दिलों पर नमक पड़े, वे बिलबिला उठे और हमारी आत्माएँ उनके कार्य को देखकर सुखी हों। जब हम नवीन शरीर धारण करके देशसेवा में योग देने को उद्यत हों, उस समय तक भारतवर्ष की राजनीतिक स्थिति पूर्णतया सुधरी हुई हो। जनसाधारण का अधिक भाग सुशिक्षित हो जाए। ग्रामीण लोग भी अपने कर्तव्य समझने लग जाएँ।

प्रिवी-कौंसिल में अपील भिजवाकर मैंने जो व्यर्थ का अपव्यय करवाया, उसका भी एक विशेष अर्थ था। सब अपीलों का तात्पर्य यह था कि मृत्युदंड उपयुक्त नहीं, क्योंकि न जाने किसकी गोली से आदमी मारा गया। अगर डकैती डालने की जिम्मेदारी के खयाल से मृत्युदंड दिया गया तो चीफ कोर्ट के फैसले के अनुसार भी मैं ही डकैतियों का जिम्मेदार तथा नेता था, और प्रांत का नेता भी मैं ही था। अतएव मृत्युदंड तो अकेला मुझे ही मिलना चाहिए था। अन्य तीन को फाँसी नहीं देनी चाहिए थी। इसके अतिरिक्त दूसरी सजाएँ सब स्वीकार होतीं। पर ऐसा क्यों होने लगा मैं विलायती न्यायालय की भी परीक्षा करके स्वदेशवासियों के लिए उदाहरण छोड़ना चाहता था कि यदि कोई राजनीतिक अभियोग चले तो वे कभी भूलकर के भी किसी अँगरेजी अदालत का विश्वास न करें। तबीयत आए तो जोरदार बयान दें। अन्यथा मेरी तो यही राय है कि अँगरेजी अदालत के सामने न तो कभी कोई बयान दें और न कोई सफाई पेश करें। काकोरी षड्यंत्र के अभियोग से शिक्षा प्राप्त कर लें। इस अभियोग में सब प्रकार के उदाहरण मौजूद हैं। 

प्रिवी-कौंसिल में अपील दाखिल कराने का एक विशेष अर्थ यह भी था कि मैं कुछ समय तक फाँसी की तारीख टलवाकर यह परीक्षा करना  चाहता था कि नवयुवकों में कितना दम है और देशवासी कितनी सहायता दे सकते हैं। इसमें मुझे बड़ी निराशापूर्ण असफलता हुई। अंत में मैंने निश्चय किया था कि यदि हो सके तो जेल से निकल भागूं। ऐसा हो जाने से सरकार को अन्य तीनों फाँसीवालों की सजा माफ कर देनी पड़ेगी और यदि न करते तो मैं करा लेता। मैंने जेल से भागने के अनेक प्रयत्न किए, किंतु बाहर से कोई सहायता न मिल सकी। यही तो हृदय पर आघात लगता है कि जिस देश में मैंने इतना बड़ा क्रांतिकारी आंदोलन तथा षड्यंत्रकारी दल खड़ा किया था, वहाँ से मुझे प्राण-रक्षा के लिए एक रिवॉल्वर तक न मिल सका। एक नवयुवक भी सहायता को न आ सका। 

अंत में फाँसी पा रहा हूँ। फाँसी पाने का मुझे कोई भी शौक नहीं, क्योंकि मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि परमात्मा को यही मंजूर था। मगर मैं नवयुवकों से फिर भी नम्र निवेदन करता हूँ कि जब तक भारतवासियों की अधिक संख्या सुशिक्षित न हो जाए, जब तक उन्हें कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान न हो जाए, तब तक वे भूलकर भी किसी प्रकार के क्रांतिकारी षड्यंत्रों में भाग न लें। यदि देश-सेवा की इच्छा हो तो खुले आंदोलनों द्वारा यथाशक्ति कार्य करें, अन्यथा उनका बलिदान उपयोगी न होगा। दूसरे प्रकार से इससे अधिक देश-सेवा हो सकती है, जो ज्यादा उपयोगी सिद्ध होगी। परिस्थिति अनुकूल न होने से ऐसे आंदोलनों में परिश्रम प्रायः व्यर्थ जाता है। जिनकी भलाई के लिए करो, वही बुरे-बुरे नाम धरते हैं और अंत में मन-ही-मन कुढ़-कुढ़कर प्राण त्यागने पड़ते हैं।

देशवासियों से यही अंतिम विनय है कि जो कुछ करें, सब मिलकर करें और सब देश की भलाई के लिए करें। इसी से सबका भला होगा।

               मरते बिस्मिल रोशन लहरी अशफाक अत्याचार से।
                 होंगे पैदा सैकड़ों इनके रुधिर की धार से॥







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