पं जवाहरलाल नेहरू (Nehru):- राजनितिक (Political) और लोकतान्त्रिक(Democratic) विरासत के मायने

एक सपना था जो अधूरा रह गया, एक गीत था जो गूँगा हो गया, एक लौ थी जो अनन्त में विलीन हो गई। सपना था एक ऐसे संसार का जो भय और भूख से रहित होगा, गीत था एक ऐसे महाकाव्य का जिसमें गीता की गूँज और गुलाब की गंध थी, लौ थी एक ऐसे दीपक की जो रात भर जलता रहा, हर अँधेरे से लड़ता रहा और हमें रास्ता दिखाकर, एक प्रभात में निर्वाण को प्राप्त हो गया "


Jawaharlal_Nehru_political and democratic legacy
Jawaharlal Nehru signing Indian Constitution, PHOTO- Wikimedia


ये पंक्तिया पंडित नेहरू के अवसान के बाद उनके ध्रुव राजनीतिक विरोधी रहे स्वर्गीय अटल विहारी वाजपाई जी की है। एक ऐसे व्यक्ति के प्रति जिनके साथ राजनितिक, आर्थिक और वैचारिक विरोधो के होते हुए भी उन्होने उनके व्यक्तित्व को इस प्रकार याद किया। आधुनिक भारत के शिल्पकार,  धर्मनिरपेक्षता और तरक्की पसंद राजनीति के पैरोकार ,संसदीय लोकतंत्र और लोकतान्त्रिक संस्थाओ के संस्थापक,पंडित जवाहरलाल नेहरू को दुनिया को अलविदा कहे हुये पांच दहाइयां गुजर चुकी हैं, लेकिन नजरिये की तासीर देखिये कि आधुनिक भारत को बनाने वाले इस दूरदर्शी नेता की विरासत आज भी देश को आगे बढ़नेकी प्रेरणा दे रही है। 

पंडित नेहरू न केवल एक दूरद्रष्टा राजनेता थे ल्कि एक विचारक और लेखक भी थे। अपने विचारो और कर्मो से उन्होंने नवजात राष्ट्र की जो नींव रखी आज वह एक भव्य ईमारत के रूप में पूरी दुनिया में अपनी चमक बिखेर रही है। वक़्त के अनेक झोंके आते जाते रहे है लेकिन आज भी नेहरू के सपनो का भारत अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ रहा है।साथ ही देश के जनमानस और यहां के कण कण में आज भी उनकी विरासत नज़र आती है।

भारत आज आधुनिक, प्रगतिशील, औद्योगिक और वैज्ञानिक तरक्की वाले मुल्क के रूप में दुनिया में पहचाना जा रहा है,तो इसके पीछे प्रथम प्रधानमंत्री की दूरंदेशी ही थी। नेहरू ने 1947 में आजादी के बाद अगले 17साल तक देश को संवारा और उसे आगे बढ़ने का रास्ता दिखाया। भारत और भारतीय लोकतंत्र पर नेहरू के प्रभाव को चार स्तम्भों के रूप में देखा जा सकता है-लोकतांत्रिक संस्थाओ के संस्थापक के रूप में,धर्मनिरपेक्षता के पुजारी के रूप में, सामाजिक अर्थशास्त्री के रूप में और गुटनिरपेक्षता के द्वारा विदेश राजनीति को प्रभावित करने वाले एक प्रभावशाली वैश्विक राजनेता के रूप में। 

नेहरू की विरासत सिर्फ वो नीतियां ही नहीं हैं, जिसे आजादी के बाद अगले 17 साल में नेहरू सरकार ने लागू किया, बल्कि नेहरू की विरासत वो विचार हैं,जिसकी आत्मा देश के संविधान में बसती है। उनकी विरासत वो अभियान भी है जिसे पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 15 अगस्त 1947 की आधी रात को शुरू किया था।


Jawaharlal_Nehru- legacy- political and democratic life
Pt. Nehru swearing as first prime minister of india, PHOTO- Wikimedia

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15 अगस्त 1947 की आधी रात को देश ने पंडित नेहरू के नेतृत्व में आधुनिक राष्ट्र बनने का सपना देखा था। 15 अगस्त की आधी रात को दिये अपने भाषण "अ ट्रिस्ट विद डेस्टिनी" मे उन्होने अपने सपनों के नये भारत के लिये एक खाका खीचा। सपने को साकार करना आसान नहीं थाक्योंकि ये वो दौर था जब देश बंटवारे के दर्द से गुजर रहा था। सांप्रदायिकता और अलगाववादी सोच अपने चरम पर थी। देश में चारो तरफ नफरत और खूनखराबे का माहौल था। यहाँ तक की राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी को भी नहीं बक्शा गया और उनकी हत्या कर दी गयी। ऐसे वक्त में नेहरू उन विचारों को लेकर मजबूती से खड़े हुए, जिस पर वो पूरी शिद्दत के साथ विश्वास करते थे। जिसे वो आजादी की लड़ाई के वक्त से ही संवार रहे थे। 

आजादी के बाद जब देश का नेतृत्व नेहरू के हाथ में आया, तब उन्होंने एक नए भारत के निर्माण में सरदार पटेल और राजेंद्र प्रसाद जैसे परंपरावादियों,सी राज गोपालाचारी, अंबेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे विरोधियों को अपने  साथ लेकर कार्य किया। मौलाना आजाद जैसे वामपंथी सोच वाले कांग्रेसी को भी साथ ले कर चले। अगले 17 साल नेहरू ने ऐसे राष्ट्र के निर्माण की कोशिश की जिसमें मजहब, जाति, रंग या लिंग के आधार पर भेदभाव न होता हो। ये विचार ही नेहरू की विरासत है जिसने आजादी के बाद देश पर शासन करने वाली हर सरकार का मार्गदर्शन किया है।


नेहरू भारत के लिए धर्मनिरपेक्ष-लोकतंत्र के अलावा वैज्ञानिक सोच या मिजाज (साइंटिफिक टेंपर) को सबसे महत्वपूर्ण मूल्य मानते थेइस मायने में वह स्वाधीनता आंदोलन के अनेक शीर्ष नेताओं में गुणात्मक रूप से भिन्न नजर आते हैं। नेहरू के धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक मिजाज में अंधविश्वास और कर्मकांडों के सार्वजनिक-प्रदर्शन के लिए कोई जगह नहीं थी। 

संस्कृतियों और सभ्यताओं के महान अध्येता नेहरू के लिए धर्म का मतलब सिर्फ कर्मकांड नहीं है। परंपरा और विरासत के प्रतीकों से उन्हें कोई परहेज नहीं था पर वे उन्हें आधुनिकता के नये परिप्रेक्ष्य और अंतर्वस्तु के साथ पेश करने के पैरोकार थे। द डिस्कवरी ऑफ इंडियामें इसके ठोस प्रमाण भी मिलते है। यही नहीं पूरी दुनिया को देखने-समझने का उनके पास एक सुसंगत नजरिया है जो ग्लिम्प्सेज ऑफ वल्र्ड हिस्ट्रीसे साफ नजर आता है। यही कारण है कि नये कल कारखानों और नवगठित उपक्रमों और बहुउद्देशीय नदी घाटीपरियोजनाओं में उन्हें आधुनिक भारत के नये मंदिरनजर आते है।

भाखड़ां नांगल परियोजना के उद्घाटन पर वह अपने उद्गार कुछ इस प्रकार व्यक्त करतें हैं "मैं दूर तक देखता हूं, सिर्फ भाखड़ा नंगल ही नहीं अपितु हमारे इस देश भारत को भी, जिसके हम सब बच्चे हैं। देश कहां जा रहा है? हमें उसे कहां ले जाना है ? हमें किस रास्ते पर चलना है और हमें कौन से दुष्कर कार्य करने हैं ? इनमें से कुछ हमारे जीवन काल में पूरे हो जाएंगे। कई दूसरे कार्य हमारे बाद आने वाले लोगों द्वारा पूरे किए जाएंगे। एक राष्ट्र का या देश का काम कभी खत्म नहीं होता। वह चलता रहता है और कोई भी उसकी प्रगति को रोक नहीं सकता है: एक जीवंत राष्ट्र की प्रगति को। हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि जब हम कोई बड़ा काम करते हैं तो हमें वह एक उदार दिल और उदार दिमाग से करना चाहिए। छोटे दिमाग में छोटी सोच वाले राष्ट्र कभी बड़े काम नहीं कर सकते । जब हम बड़े कार्य करते हैं उसके साथ हमारा कद भी बढ़ता है और हमारे मन भी उदार होतें है। "




पंडित नेहरू वैश्विक राजनीति और इतिहास के भी अच्छे अध्ध्येता थे। दुनिया के देशो के निर्माण की प्रक्रिया और उनके रास्तो में आने वाली बाधाओं से वो सुपरिचित थे। उन्हें ये पता था देश के निर्माण की नीव नफरत, साम्प्रदायिकता और बारूद के ढेर में नहीं रखी जा सकती क्यूकि इसका परिणाम आने वाली नश्लों को भुगतना पड़ेगा।

आज आज़ादी के सात दशकों के बाद ये तथ्य भली भांति उजागर हो चुके है कि भारत के साथ ही स्वतंत्र हुआ देश पाकिस्तान तथा अन्य भी देश भारत से कितने पीछे है और अनेक आतंरिक समस्याओं से ग्रस्त है। अपनी सकारात्मक सोच के साथ वह एक जनोन्मुख मध्यमार्गी के तौर पर उभरते हैं. इसलिए वह समाज और राजनीति के अनेक मुद्दों पर अपने समकालीन कांग्रेसी दिग्गजों से बिल्कुल अलग नजर आते हैं। अपने पत्रों और वक्तव्यों के जरिये वह अपने समकालीन नेताओं को हिंदू महासभा और कुछ कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों के खतरनाक विचारों व कार्यकलापों के प्रति लगातार आगाह भी करते रहते हैं।

यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि यह नेहरू कि दृढ प्रतिबद्धता और समर्पण का ही परिणाम है कि भारत का लोकतंत्र और संसदीय प्रणाली आज इस रूप में पुष्पित और पल्लवित हो पायी है। नेहरू के संसदीय मूल्यों और विचारो के बिना भारत कैसा होता? यह तो पडोसी देशो को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है जहां पिछले दश कों मे अबतक कितने संविधान कितनी बार बने और बिगड़े। पहली लोकसभा के अंतिम सत्र में नेहरू ने अपने भाषण में कहा था-

"हमने इन पांच सालो में न केवल इतिहास से सीखकर कार्य किया बल्कि कई मामलों में इतिहास निर्माण कि प्रक्रिया का भी हिस्सा रहे। संसदीय लोकतंत्र निश्चित रूप से कई चीजों और कुशलताओं की मांग करता है,  इनमे है अपने कार्य के प्रति समर्पण, सहयोग के साथ कार्य करना, आत्मसंयम और नियंत्रण। संसदीय लोकतंत्र ऐसी कोई चीज नहीं जिसे किसी त्वरित प्रक्रिया द्वारा या राजदंड के प्रयोग से किसी समाज या देश पर प्रत्यारोपित किया जा सके"|


नेहरू संसदीय गरिमा और उसकी कार्य प्रणाली कि स्वतंत्रता के पक्षधर थे। उनका विचार था कि संसद एक मंदिर है और हम चुने हुए जनप्रतिनिधियों का यह कर्त्तव्य है कि हम अपनी जनता और लोगो की अपेक्षाओं के प्रति खरे उतरे। देश के सामने अनेक समस्याओं के होते हुए तथा प्रधानमंत्री के कार्य के बोझ के होते हुए भी नेहरू संसद कि चर्चाओं और प्रक्रियाओं में हमेशा बढ़चढ़ कर भाग लेते थे। 

पूर्व लोक सभा अध्यक्ष सरदार हुकुम सिंह नेहरू के बारे में लिखते है कि "नेहरू संसद के सुचारु संचालन के प्रति बहुत ही संजीदा थे। जब कभी भी बैठक के लिए कोरम न पूरा होता था और घंटी बजती थे नेहरू सीधा संसद कि र भागते थे। साथ यह भी सुनिश्चित करते थे कि उनकी पार्टी का कोई भी सदस्य दिल्ली में रहते हुए बैठक से अनुपस्थित न हो"


आज भारत में संसद की भाषा और उसके प्रति हमारे नेताओ के रुझान में काफी गिरावट का दौर चल रहा है। पर नेहरू ऐसे किसी मामले को बड़ी गंभीरता से लेते थे। एक बार लोकसभा अध्यक्ष जी.वी. मावलंगर ने शिकायत कीकि कई मंत्री संसदीय प्रश्नो का जवाब खुद उपस्थित होकर नहीं देते और ऐसे कृत्य स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छे नहीं है। नेहरू ने स्वयं इस बात को संज्ञान में लिया और अपने मंत्रियो को पत्र लिखकर हिदायत दी कि वे संसद कि बैठकों में ज्यादा से ज्यादा उपस्थित हो और प्रश्नो का जवाब स्वयं दे।

.नेहरू एक स्वतंत्र और निष्पक्ष मीडिया के पक्षधर भीथे। उनपर कई बार उनके विरोधियो द्वारा कठोर आरोप लगाए गए पर वो बिना किसी प्रकार के विद्वेष के उनका स्वागत करते और उनका प्रत्युत्तर लोकतांत्रिक परम्पराओ के अनुकूल देते। लोकतंत्र में मीडिया और समाचार पत्रों द्वारा की जा रही आलोचना के सन्दर्भ में वे कहते है कि " आलोचना करना उनका अधिकार है। और मेरा मानना है कि एक लोकतांत्रिक सरकार में आलोचकों और विपक्ष का होना अति आवश्यक है।" 

आज जब दक्षिण पंथ अपने उभार पर है और देश दुनिया से लेकर भारत में भी आलोचना करने वालो को हासिये पर लाकर खड़ा किया जा रहा है तो ऐसे में यह संदेह उठना लाज़मी है कि क्या हम नेहरू कि विरासत को भूल गए है। नेहरू अपनी बीमार होने कि अवस्था में भी संसद में आकर विपक्षियों के आरोपों और प्रश्नो का खुल कर जवाब देते थे और यही उनकी महानता थी कि भारत में एक स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा को उन्होंने आगे बढ़ाया।


नेहरू ने अपने कार्य काल में भारतीय संविधान के निर्माण के द्वारा इस नव स्वतंत्र देश को ऐसा रत्न दिया जो आज भी पूरी दुनिया के लिए एक नज़ीर बना है। नेहरू को कभी कभी ये भय होता था कि कही वो खुद तानाशाही प्रवित्ति से घिर न जाये। और जब उनकी आलोचना नी बंद होजाती थी तो वो खुद कई बार अनाम होकर अपनी आलोचन खुद करते थे।

1937  में अपने एक एक लेख में वह अनाम होकर लिखते है कि " जवाहरलाल जैसे लोग लोकतंत्र में सुरक्षित नहीं है। वो खुद को लोकतांत्रिक और समाजवादी कहते है पर उनमे तानाशाही बनने कि पूरे लक्षण विद्यमान है और यदि परिस्थिति में हल्का सा बदलाव आया तो ये तानाशाही हो सकते है। इनके अंदर एक तानाशाह के सभी लक्षण जैसे कि अभूतपूर्व लोकप्रियता ,दृढ इच्छा शक्ति,असीम ऊर्जा और गर्व का भाव है।" शायद ऐसे विचार दुनिया के कम ही नेता अपने बारे में लिखकर व्यक्त करते हो और खुद ही खुद की आलोचना के बारे में सोचते हो।

nehru his life thoughts and myths
Pt. Nehru With Gandhi in Bombay

वर्तमान में हम जिस कालखंड के साक्षी बन रहे है आज उसमे कई तरह की विसंगतियां विद्यमान हो चुकी है । भारतीय लोकतंत्र में वाद-विवाद की जगह तू-तू मैं-मै का बोल बाला हो चुका है। संसद में अब कई मुद्दे शोर-शराबे की बलि चढ़ जाते है। पहली लोकसभा में जहाँ  प्रतिवर्ष संसद की कार्यावधि 135 दिन प्रतिवर्ष थी, वह 2007 तक आते आते 66 दिन प्रतिवर्ष हो गयी । 

आज लाभ के मामले और भ्रष्टाचार के कई मामले उजागर हो रहे है। संस्थाओ की स्वायत्तता खतरे में है । ऐसे में यह जरुरी हो जाता है कि हम भारत में अपने उस महान राष्ट्र निर्माता की विरासत को संजोके रखे और उस विरासत को अपनी आने वाली नश्लों तक पहुचायें। ऐसा करने के लिये हमे सत्ता और प्रशासन का मुँह नहीं देखना चाहिए। समाज के बुद्धजीवी वर्ग का यह कर्त्तव्य बनता है कि वह जमानस को नेहरू कि विरासत से परिचित कराये तथा उनके अंदर उन मूल्यों का विकास करे। समय समय पर सत्ता और उन मूल्यों को निशाना बनाए वाली हर शक्ति से वैचारिक और लोकतांत्रिक तरीके से हर तरह कि लड़ाई लड़ने को तैयार रहेतथा उनकी आर्थिक, वैचारिक ,सांस्कृतिक, राजनितिक और लोकतांत्रिक विरासत को बचाने का भरसक प्रयास करें

क्रमशः जारी.................
स्रोत -नेहरू- शशि थरूर 
लेटर्स फ्रॉम नेशन - नेहरू 
इंटरनेट 

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10 comments

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April 21, 2020 at 9:09 PM ×

नेहरू जी धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी, लोकतांत्रिक, उदारविचारक,राष्टवादी,नेता थे जो सही मायने में अपने कर्तव्यो के प्रति सम्पूर्ण सर्मपित थे इसी करण से वे पुरे देश में ही नही विदेशों में भी लोकप्रिय रहे, वे आधुनिक लोकतांत्रिक भारत के जनक थे,परन्तु उनके संसद रूपी मंदिर में आधुनिक समय के दानव अपने कर्तव्यों,कार्यो,को सुचारू रूप से कर रहे हैं?

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April 21, 2020 at 11:57 PM ×

एकदम सही कहा। बहुत बहुत आभार बंधू।

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Unknown
admin
April 22, 2020 at 1:00 PM ×

Ek article Neharu aur Dr.Rajendra Prasad pe bhi publish Kariyega ,
Specially dono ke political relationship pe..

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April 22, 2020 at 3:10 PM ×

जी विल्कुल। धीरे धीरे उसपर भी लिखेगें।

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April 24, 2020 at 1:17 AM ×

नेहरू द्वारा अपनी आलोचना ना होने पर स्वयं द्वारा स्वयं की आलोचना करना उन्नत लोकतांत्रिक सोच का उदाहरण है।आप द्वारा ऐसे महत्वपूर्ण तथ्य का उल्लेख करना और नेहरू जैसे व्यक्तित्व को कम शब्दों में बयान करना प्रशंसनीय है।

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April 24, 2020 at 1:20 AM ×

नेहरू द्वारा अपनी आलोचना ना होने पर स्वयं द्वारा स्वयं की आलोचना करना उन्नत लोकतांत्रिक सोच का उदाहरण है।आप द्वारा ऐसे महत्वपूर्ण तथ्य का उल्लेख करना और नेहरू जैसे व्यक्तित्व को कम शब्दों में बयान करना प्रशंसनीय है।

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April 24, 2020 at 1:48 AM ×

जी भैया बहुत बहुत धन्यवाद। बस ऐसे ही अपने बहुमूल्य सुझाव और टिप्पणी देते रहिये।

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Unknown
admin
May 2, 2020 at 12:56 PM ×

आज के माहौल में यह लेख अत्यधिक समीचीन प्रतीत होता है, मूल्य, जिनपर जिंदगी टिकी होती है, चाहे वह व्यक्ति की जिंदगी हो, या समाज की, या राष्ट्र की.. इसी को थोड़ा आगे बढ़ाएं तो पूरे सभ्यता की.. भौतिक रूप में कहें तो पूरे ब्रह्मांड की..
नेहरू उन्हीं मूल्यों के प्रतीक थे
यह लेख उन मूल्यों को प्रसारित करने में अहम योगदान रखता है।

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May 4, 2020 at 11:31 AM ×

बहुत बहुत धन्यवाद।

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