अतीत के झंरोंखो से होते हुये वर्तमान की चौखट तक चल रहे भारतीयों के प्रवास की अंतहीन कथा ! (पहली किश्त)


जून 1970,  
 बा द्वीप, फिजी "दुनिया से जाने वाले, जाने चले जाते हैं कहाँ..."
फिजी रेडियो पर गीत बज रहा है, और रामदीन आम के पेड़ के नीचे लेटे अपने अतीत में खोये हैं। धोती-कुर्ते में अपने सफ़ेद मुरैठा (पगड़ी) को तकिया बना कर लेटे रामदीन, बस समय और स्थान में कहीं और हैं। अगर पृथ्वी को घुमा दें तो आज वो भोजपुर ज़िले के अपने गाँव में इसी मुद्रा में लेटे होते।
जात के चमार हैं रामदीन। अब तो 90 वर्ष उम्र होने को आयी, पर बाजुओं में अब भी दम है। सुबह से बेटों के साथ खेत जोतते हैं। अब तो बड़े बेटे ने इस सुदूर द्वीप पर अपने गाँव का पहला ट्रैक्टर भी ख़रीद लिया। उनका परिवार गाँव के समृद्ध परिवारों में से है। समृद्ध न होता, तो घर में रेडियो कैसे होता?
रामदीन ब्रिटिश राज के हिन्दुस्तान में 1890 ई. में बिहार की किसी चमरटोली में जन्मे। यह जन्मतिथि भी काल्पनिक है, सरकारी काग़ज़ों में अब यही है। अब यही सत्य है।
 रामदीन के दादा ने कभी गाँव के ज़मींदार से कर्ज़ लिया था, जो उनकी पुश्तें चुका रही थीं। पता नहीं कैसा ब्याज था, जो अनन्त था। उनका घर चमरटोली के कई छोटे मिट्टी के घरों की टेढ़ी-मेढ़ी लाइन में एक था। फूस की छत, जो बारिश में गीली होती, और फ़र्श में नमी। वहीं घर के बाहर एक नाद थी, जिसमें उनकी भैंस चारा खाती। एक छोटी खाट भी लगी थी, जिसकी रस्सियाँ टूट रही थीं, और बीच में क्रेटरनुमा छेद बन गया था। सँभलकर छेद के दोनों ओर पैर फैलाकर लेटना होता। एक पानी का मटका भी था, जिससे उनकी माँ रोज़ कुएँ से भरकर लाती। उनके दियाद-भाई (जाति भाई) भी मटके में मुँह लगा देते, माँ झाड़ू लेकर गरियाती लड़ने दौड़ती।
चूल्हा भी बाहर ही था। अन्दर होता तो फूस की छत जल न जाती? बारिश में बड़ी दिक्कत होती, पर खाना वहीं बनता। भात के बर्तन में बरसात का पानी भी टप-टप गिरता, और भात क्या स्वादिष्ट बनता! बाबू भी ज़मींदार के खेत से थक कर लौटते। रास्ते में पासी-टोला से ताड़ी पीकर आते, और एक भगौना भात खा जाते। बिना सब्ज़ी के। उठ कर सुबह पाँच बजे खेत निकल जाते, सूर्योदय से पहले।
रामदीन को अब ठीक से बाबू का चेहरा तक याद नहीं, पर तगड़ी मूँछें थीं और फ़ौलादी बाजू। गंजी पहन कर मुरैठा बाँधे रहते और गले में एक काला ताबीज़ पहनते। शनीचरा ताबीज़। माँ चार बजे उठकर मोटी रोटी और तरकारी बनाती, जो खाकर जाते। भैंस का दूध भी सुबह ही दूह लेते। एक गिलास घर में रख लेते और बाक़ी यादव जी को दे आते। यादव जी ने महीने का पन्द्रह-सोलह आना कुछ बाँध रखा था।
जब रामदीन जवान हुए, वो भी ज़मींदार के खेत में खटने लगे। बाबू का हाथ बँटाने लगे। गौना पहले ही हो गया था, अब शादी भी हो गयी। एक दिन बक्सर के पास मेले में गये पड़ोसी गाँव के लखनमा के साथ। जेब में कौड़ी नहीं, मेले में क्या लेते? कोने में पेड़ की छाँव में खैनी चुनाने बैठ गये। वहीं एक औघड़ बाबा मिले। उन्होंने रामदीन का हाथ ज़ोर से पकड़ लिया, और बोले, "बेटा! तुम्हरा भाग में कलकतवा है। वहाँ जाके जहाज पकड़ लो, सब चिन्ता खतम।"
 "कलकतवा का नाम तो बहुत सुना पर जायें कैसे?"
साधु बाबा बोले, "उसका इन्तजाम मैं करूँगा। अगले पूर्णिमा की रात सपत्नी यहीं मिलो।"

रामदीन के तो भाग खुल गये। कलकत्ता से पैसा कमा के ज़मींदार का सब क़र्ज़ा चुकता हो जायेगा। फिर अपनी खेती, अपनी फ़सल। किसी की मजूरी नहीं। रामदीन इन स्वर्णिम सपनों में खो गये। पूर्णिमा से एक रात पहले ही घर से भाग लिए। पत्नी को भी भगा लाये। बक्सर में साधु बाबा के साथ उस दिन कुछ सरकारी ऑफ़िसर भी थे, पैण्ट-शर्ट में। बाहर की शहरी भाषा बोलने वाले। रामदीन ने कुछ पैसे की बात नहीं की, काम का नहीं पूछा, चल दिये। शहरी लोग कोई धोखेबाज थोड़े ही होते हैं? ये तो साधु बाबा की कृपा है कि जुगाड़ लग गया। उन्हें बक्सर के डिपो में ठहराया गया। वहाँ कई और लोग मिले, जो आगे जाकर इनके जहाज़ी भाई होंगे।
रामदीन घर से उस पूर्णिमा को जो भागे, आज तक लौट कर नहीं गये। उन्हें क्या पता था कि कलकता भी पीछे छूट जायेगा। जहाज़ उनको फिजी ले आयेगा। न बाबू की कोई ख़बर मिली, न गाँव के लखनमा की। उनका परिवार कहीं पीछे छूट गया।
पर अब रामदीन के फिजी में अपने खेत हैं, अपनी फ़सल है। किसी की मजूरी नहीं। पर यह सब यूँ ही नहीं हो गया। उन्होंने बहुत कुछ खोया। फिजी की इस मिट्टी में कई राज़ छुपे हैं, दर्द छुपा है। यह खुशहाल द्वीप ऐसे कई रामदीनों से बना है, जिनके चीत्कार समय के साथ दब गये। घाव सूख गये। बिदेसिया गीत अब नहीं सुनायी देते। चिट्ठियाँ सात समन्दर पार नहीं लिखी जातीं। रेडियो पर आज ये गाना सुनते रामदीन को भी अब यह सब कुछ बस धुँधला याद है। "दुनिया से जाने वाले, जाने चले जाते हैं कहाँ...''
 (स्रोत- कुली लाइंस- लेखक-प्रवीण झा)


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भारतीय गिरमिटिया मज़दूर (फोटो-विकिमीडिया)


ऊपर रामदीन की जो कहानी आपने पढ़ी ये उन्नीसवीं और बीसवीं शदी में भारतीयों के प्रवास की त्रासद कहानी है। ऐसी हज़ारों लाखों सत्य कहानियाँ बरतानी और फ्रांसीसी हुकूमत के वक़्त की इतिहास की किताबों या सरकारी दस्ताबेजों में दफ़न है। यह हुकूमतों द्वारा धोखे से या लालच देकर किये गए भारतीयों के प्रवास की गाथा है जिन्हे तत्कालीन ब्रिटिश और फ़्रांसिसी सत्ता ने अपने व्यक्तिगत लाभों के लिए खूब प्रोत्साहित किया।

वैसे मानवीय सभ्यता के इतिहास में प्रवासन कोई नयी पहेली नहीं है। आदि काल से ही सभ्यताओं के विकास के क्रम में  मानव ने अपनी जरूरतों या परिस्थितियों के वश में आकर निरंतर एक स्थान से लेकर दूसरे स्थान के लिए प्रवास किया है। यदि आप मानव विकास और प्रवास को ऐतिहासिक किताबों की खिड़कियों से झांककर देखें तो आप पाएंगे कि लाखों साल पहले  एक सुरक्षित और चैन से रहने योग्य स्थान की खोज में शिशुओं को सीने से लगाए माताएं, मिट्टी से सने निश्चिन्त खेलते बच्चे, थके हुए बुजुर्ग और स्थानीय सुंदरियों को छाती ठोंक अपनी ओर आकर्षित करते युवक सैंकड़ो हज़ारो मीलों की पदयात्राएं करते हुए मिल जायेंगे। मानव द्वारा किये गए ये प्रवास कोई शौकिया प्रवास नहीं थे। इसके पीछे हमेशा या तो कोई प्राकृतिक ,मानवीय या जंगली जंतुओं से उपजे खतरे थे जिन्होंने मानव को प्रवास के लिए मजबूर किया।

वक़्त के साथ मानव ने अनेक परिस्थितियों पर काबू पाना शुरू किया और धीरे धीरे छोटे छोटे  समुदायों से होते हुए बड़े बड़े साम्राज्य खड़े कर दिए। इस अवधि के बीच मानव ने अपनी जीवन शैली से लेकर कृषि, आर्थिकी, परिवहन के स्वरुप, तकनीकि और सोंच में अनेक परिवर्तन किये। पर इन परिवर्तनों के साथ एक परिघटना जो नहीं बदली वह थी मानव  प्रवास की परिघटना।  इस परिघटना से भारत भी अछूता नहीं रहा।  आर्यो से लेकर अबतक भारत में कई प्रजातियों ने विभिन्न कारणों से इस धरा की तरफ प्रवास किया। भारत दुनिया के उन चुनिंदा देशो में सुमार है जहाँ सबसे ज्यादा सांस्कृतिक, भाषाई, धार्मिक और परंपरागत विविधता पाई जाती है जिसका मूल कारन है निरंतर प्रवास चाहे वह बाहरी आक्रमणकारियों का हो या आन्तरिक।

प्राचीन भारत में प्रवास का इतिहास पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व से लेकर 1300 ई.पू. के बीच तकरीबन 2000 वर्षों तक रहा, यह मुख्य रूप से मध्य-एशिया से उत्तर-पश्चिमी दर्रों के सहारे हुआ। यह प्रवास मूल रूप से राजनैतिक या व्यापारिक था। उपलब्ध ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार,  2000 ईसा पूर्व से 300 ईसा पूर्व तक आते आते राजनीतिक शक्ति और नागरिकरण का केंद्र बिन्दु सिंधु घाटी से पर्व की ओर स्थानांतरित होकर गंगा-यमुना मे शिफ्ट हो गया। इस समय पाटलिपुत्र ( वर्तमान पटना) शक्ति की धुरी बन गया था। नालंदा विश्विद्यालय मे हज़ारों विदेशी छात्र अध्ययन प्रवास करते थे।


nalanda vishwavidyalaya
नालंदा विश्वविद्यालय 

राजनीतिक एवं व्यापरिक कारणो के अलावा प्रवासन का एक और पहलू भारत में बाढ़ और अकाल का होना था। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में ऐसे समय मे विभिन्न क्षेत्रों में प्रवास की सिफारिश की है। उन्होने तो यहाँ तक कहा है कि अकाल के समय राजा को दरबार और पूरी आबादी के साथ ऐसे स्थान के लिए प्रवास करना चाहिये जहाँ प्रचुर मात्रा में फसल या जलस्रोत की उपलब्धता सुनिश्चित हो। इसी प्रकार उस समय इससे मिलती जुलती एक ऐसी नीति थी जिसके तहत अत्यधिक जन्सख्या वाले क्षेत्रों से शूद्रों को निर्वासित कर नये वन क्षेत्रों को साफ कर वहाँ बसाया जाता था। अशोक के एक शिलालेखों से पता चलता है कि लगभग 1,50,000 लोगों को कलिंग (वर्तमान ओडिशा के आसपास) से निर्वासित किया गया था। अर्थशास्त्र के अनुसार प्रवासन को कठोरता पूर्वक मुद्राध्यक्ष द्वारा नियन्त्रित किया जाता था।

वैसे यदि हम प्राचीन भारत की बात करे तो सामान्यत: गाँव पूर्ण रूप से आत्म निर्भर थे। गाँव के लोग केवल तीर्थयात्रा या व्यापार के लिये अपने मूल स्थान से बाहर प्रवास करते थे। बाहरी आक्रमण के समय वे बिना किसी विरोध के उन्हें अपने क्षेत्रों से होते हुए जाने देते थे और इस प्रकार वे स्वयं को अपने गांव तक सीमित रखते थे। यही कारण है की इतने आक्रमणो के बाद भी भारतीय गांव अपने आपको सांस्कृतिक और समाजिक दृष्टि से अक्षुण्य रखने मे सफल हो सके।

पाटलीपुत्र के राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से स्थापित होने के बाद प्राचीन भारत में प्रवासन के नये प्रमुख संदर्भ पहली सहस्राब्दी ई. के उत्तरार्ध में मिलते है। यह प्रवासन उपमहाद्वीप के अधिकांश हिस्सों में हिंदू दर्शन के जानकर ब्राह्मणों द्वारा किया गया। उत्तर भारत मे ऐसे ब्रहमण समुदायों को सामाजिक समूह में भूमि और ग्राम अनुदान के ऐतिहासिक साक्ष्य मिलते है। यह इन्हे विशेष विशेषाधिकारों के साथ उनकी नई बसाये गये गांव  के लिये उन्हें प्रदान किए जाते थे। ये हिन्दू दार्शनिक या धर्म गुरु अकेले या पूरे समूह में एक स्थान से दूसरे स्थान को प्रवास करते थे।

इन प्रवासी ब्राह्मण सन्तो ने संभावित रूप से पूरे देश मे ब्रह्मणवादी केंद्रों की स्थापना करके अलग-अलग हिंदू प्रथाओं को मानकीकृत करने की गति को तेज किया। ये प्रक्रियाएं उस समय के प्रमुख हिन्दू  दार्शनिक आदि शंकराचार्य की पूरे भारतवर्ष की व्यापक यात्राओं से शुरु हुई। आदि शंकराचार्य को हिंदू विचार की विभिन्न धाराओं को एकजुट करने का श्रेय भी दिया जाता है।


ईसा पूर्व 2000 से लेकर 400 ईस्वी तक भारत में जो भी प्रवास हुए वो या तो बाहरी लोगों द्वारा किया गए या तो आतंरिक धार्मिक या व्यापारिक समूहों द्वारा किया गया।  पर ऐसा नहीं है कि प्राचीन भारत में भारतीयों द्वारा भारत के बाहर प्रवास नहीं हुआ, हां ये बात जरूर है कि ये प्रवासन उस मैग्नीट्यूड में नहीं हुआ जिस गति से विदेशियों द्वारा भारत में प्रवास किया गया।  यदि हम ऐतिहासिक साक्ष्यों पर ध्यान दे तो पाते है कि ईसा की  शताब्दी में दक्षिण पूर्व एशिया के साथ हमारे व्यापक संबंध थे। चौथी शताब्दी के बाद से दक्षिण पूर्व एशिया के कई राजनीतिक राज्यों में भारतीय सांस्कृतिक प्रथाओं को अपनाने के साक्ष्य मिलते है। चोल साम्राज्य ( 850 -1250 ईस्वी) के राजाओ ने श्रीलंका और दक्षिण पूर्व के कई राज्यों को विजित किया। 


Chola empire around 1000 AD
चोल साम्राज्य का विस्तार


 प्राचीन भारत में ऐसे अन्य उदहारण मिलते है जब भारतीयों का भारतीय उपमद्वीप से बहार भी प्रवासन हुआ। सिकंदर और अन्य आक्रमणकारियों की सेनाओं द्वारा  भारतीयों और हाथियों को मध्य एशिया और यूरोप ले जाने के साक्ष्य मिले है। ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के बीच अर्मेनिया में 15,000 से अधिक हिन्दुओं की बस्तियों का उल्लेख मिलता है। भारत के बौद्ध मिशनरियों धर्मरक्ष और कश्यप मातंग का उल्लेख चीन में कॉमन एरा की शुरुआत के समय मिलता है।इसके बाअद भारत से  कलाकारों और शिक्षकों के कई जत्थों के चीन और दक्षिण पूर्व में प्रवास के साक्ष्य मिलें है।   
 पांचवीं शताब्दी ई. में ईरान में फारस के राजा बहराम गोर के निमंत्रण पर 12,000 भारतीय संगीतकारों के एक बड़े समूह के उत्प्रवास और बसने का भी विशेष उल्लेख मिलता है। 8वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बगदाद में "मंका" नाम के    एक हिंदू चिकित्सक का उल्लेख मिलता है जो संस्कृत से अरबी में भारतीय पुस्तकों का अनुवाद करते थे। इस तरह के अनुवाद ने प्राचीन भारतीय ज्ञान जैसे कि खगोल विज्ञान, गणित, चिकित्सा और अन्य क्षेत्रों के ज्ञान से अरबी दुनिया को परिचित कराया। तबकतुल उमाम के अनुसार 771 में भारत का एक प्रतिनिधिमंडल बगदाद आया था। इस प्रतिनिधिमंडल में कनक नामक एक खगोलशास्त्री शामिल थे, जो अपने साथ किताबों का एक छोटा पुस्तकालय लेकर आये थे जिसमें सूर्य सिद्धान्त नामक पुस्तक और आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त की कुछ रचनाएँ भी शामिल थी। अरब इतिहासकार अल-क़िफ्ती के अनुसार ख़लीफ़ा भारतीय ग्रंथों में वर्णित ज्ञान से चकित रह गया।

इसके अलावा पश्चिम एशिया में ऐसी भारतीय बस्तियों का उल्लेख भी किया गया है जहाँ भारतीय अकाउंटेंट, कारीगर, गनर और रसोइया के रूप में कार्य करते थे। 14वीं शताब्दी में भारत की यात्रा पर आये मोरक्को के यात्री इब्नबतूता द्वारा यूनानी साम्राज्य की सेना में भारतीय सैनिकों और सैन्य टुकड़ियों का उल्लेख किया गया है। ये सभी साक्ष्य ये बताते है कि प्राचीन भारत में भी प्रवास होता था।  पर उस वक़्त भारत में बाह्य आक्रमण करियों या व्यापारियों द्वारा ज्यादा प्रवास किया गया। सप्तसिंधु प्रदेश से लेकर गंगा यमुना क दोआब तक  तीव्र गति से साम्राज्यों का निर्माण हुआ और लोगो ने एक स्थान से दूसरे स्थान को प्रवास किया।  

स्रोत -
कुली लाइंस - प्रवीण झा 
अर्थशास्त्र - आचार्य विष्णुगुप्त 
इंडिया मूविंग - चिन्मय थुम्बे 
मानव जाति का संक्षिप्त इतिहास - युवाल नोआ हरारी 
टेक्स्ट एंड कंटेस्ट - आरिफ़ मोहम्मद खान 











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3 comments

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May 18, 2020 at 12:13 AM ×

प्रत्येक घटना की तरह प्रवास का इतिहास भी रहा होगा। लेकिन एक अरुचिकर इतिहास के सन्दर्भ को जिस प्रकार से आपने कथा के रूप में प्रस्तुत किया है वो अद्वितीय है। 'पहली किश्त'के बाद इसके 'दूसरी किश्त' की बेशब्री से प्रतीक्षा रहेगी।

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May 18, 2020 at 12:35 AM ×

एकदम सही। प्रवास मानव के विकास के साथ चलने वाली निरन्तर प्रक्रिया है। अक्ज्यासर यब नीरस बोतीं है। पर कुछ जगहों पर रोचक भी।अगली किश्त जल्द ही आयेगी।

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May 24, 2020 at 1:33 AM ×

सुंदर!!इतिहास में प्रवास के साथ साथ प्रवास का इतिहास भी दिख रहा है।

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