1966 का मिज़ो विद्रोह : जब इन्दिरा गान्धी ने मिज़ो विद्रोहियो से निपटने के लिये अपने ही लोगों पर बमबारी करवा दी !!

Air strike on mizo revolutionary by IAF
(फोटो-कैच न्यूज़)


चीन ने सिक्किम क्षेत्र में अपने बढ़ते प्रभाव को और बढ़ाने के लिए 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध का इस्तेमाल किया था।  चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष, माओ ज़ेडॉन्ग की रणनीति भारत पर अधिक दबाव डालने की थी। माओ भारत को कई मोर्चो पर एक साथ परेशान कर दिल्ली को इन मोर्चों पर लड़ाना चाहते थे। चीन की धारणा थी कि इससे कई मोर्चो पर लडती नई दिल्ली की ओर से ज्यादा तेज प्रतिक्रिया नहीं आयेगी और सिक्किम में चीन की घुसपैठ का रास्ता और आसान हो जाएगा। 

दरअसल, 1960 का दशक एक ऐसा समय था जब चीन ने भारत में बहुत परेशानी पैदा की। कई विद्रोह हुए, पहले मिजोरम में और फिर नागालैंड और पश्चिम बंगाल में ये सभी मुख्यत: चीन द्वारा वित्त पोषित थे।  सिक्किम-तिब्बत सीमा पर लगातार झड़पें होती आ रही थी और भारत सरकार और सिक्किम राजशाही के बीच तनाव बढ़ा हुआ था। डोकलाम पठार को लेकर भी तनाव बना हुआ था।

 इन सब घटनाओ का तात्कालीन चीन की आन्तरिक राजनीति से गहरा सम्बंध था। अब आपको लगेगा की इन घटनाओ का आखिर चीन की आन्तरिक राजनीति से क्या सम्बंध। इसे जानने के लिये हमे चीन की राजनीति पर नज़र डालनी पड़ेगी। दरसल 1958 से लेकर 1962 तक माओ ने चीन मे " दि ग्रेट लीप फॉरवर्ड" जैसी महात्वाकान्क्षी आर्थिक और सांमाजिक  योजन की शुरुवात की। इस योजना के कारण गरीबी और भुखमरी इतनी बाढ़ गयी की लगभग 20 से लेकर 40 मिलियन के बीच लोगो की मौत हो गयी। माओ की इस नीति के खिलाफ लोगो मे गुस्सा था। कुछ पार्टी के लोग भी विरोध मे थे। माओ मानते थे की अपनी चीनी प्रजा का ध्यान विचलित करने के लिए भारत के साथ यह कदम सख्त ज़रूरी था।

1965 के युद्ध के बाद लाल बहादुर शास्त्री की रुस के ताशकंद में समझौते के बाद मौत हो गई। उनकी मृत्यु के बाद खाली हुये राजनीतिक स्पेस को इंदिरा गांधी द्वारा प्रधान मन्त्री के रूप मे शपथ लेकर भरा गया। इन्दिरा राजनीति मे अभी कच्ची थी और पार्टी के अन्दर तथा बाहर उनके काफी विरोधी बन गये थे। उन्हे देश के अन्दर और बाहर विरोधियों से अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा। वह अपने दुश्मनों चाहे वह बाहरी हो या आंतरिक उनके हमलों से शुरु से ही अत्यंत कठोरता और निर्दयता से लड़ी।



Air strike in mizo 1966
इन्दिरा गाँधी 

 1966 में भारत के प्रधान मंत्री का पद संभालने के एक महीने और चार दिन बाद ही इंदिरा गांधी को उत्तर-पूर्वी राज्य मिजोरम में एक विद्रोह के प्रकोप से निपटना पड़ा। विद्रोहियों को पाकिस्तानी सेना (पूर्वी पाकिस्तान जो अब बांग्लादेश) के शिविरों के अन्दर प्रशिक्षित किया गया था। और बाद में चीन द्वारा इन्हे निरंतर सहायता पहुचाई गयी जिसमे ढाका में स्थित चीनी वाणिज्य दूतावास के माध्यम से वायरलेस ट्रांसमीटर, दवाएं और धन की आपूर्ति की जाती थी। कुछ साल बाद चीनी समर्थन और अधिक स्पष्ट हो गया क्योंकि मिजो विद्रोहियों को पीएलए के तहत चीन मे प्रशिक्षित किया गया।

 28 फरवरी 1966 को मिजो नेशनल आर्मी (MNA) के विद्रोहियों ने भारतीय राज्य के खिलाफ विद्रोह किया, जिसमें सीमा सुरक्षा बल और असम राइफल्स के जवानो के ऊपर लुंगी और चम्फाई जिलों में हमला हुआ। 2 मार्च तक, राज्य में भयंकर लड़ाई छिड़ गई थी और एमएनए छापामारों ने आइज़ोल के खजाने और शस्त्रागार को कब्जा कर लिया। एमएनए अब और अधिक क्षेत्रों पर कब्जा करने और भारतीय अधिकारियों को अपमानित करने की धमकी दे रहा था। भारतीय गणराज्य को जल्द ही जवाब देना था लेकिन इंदिरा गांधी का निर्णय केवल तेज और कठोर ही नहीं था अपितु यह अत्यंत अभूतपूर्व और क्रूर था।

 5 मार्च को सुबह लगभग 11.30 बजे, भारतीय वायु सेना के चार फाइटर जेट्स - फ्रांसीसी निर्मित डसाल्ट आउगन फाइटर्स (जिन्हे तूफानी कह कर बुलाया जाता था) और ब्रिटिश हंटर्स - ने असम के तेजपुर, कुंबीग्राम और जोरहाट से उड़ान भरी। इनमें से दो जेट्स को दो युवा पायलट, राजेश पायलट और सुरेश कलमाड़ी उड़ा रहे थे जो बाद मे कांग्रेस के जाने-माने राजनेता बन गए। जेट ने आश्चर्यजनक तरीके से आइज़ोल शहर पर बमबारी करना शुरु किया। अगले दिन बमबारी और तेज कर दी गयी। कई विद्रोही और आम नागरिक हताहत हुए और हर तरफ भय फैल गया। जब तक विमान अपने ठिकानों पर वापस पहुचते, तब तक आइजॉल शहर तबाह हो चुका था।  शहर के चार सबसे बड़े क्षेत्रों - रिपब्लिक वेंग, हेमीचेच वेंग, दाउरपुई वेंग और छिंगा वेंग को ध्वस्त कर दिया गया था।  इंदिरा गांधी ने मिजो विद्रोहियों को मारने के लिए अपने ही लोगों पर बम गिराने में संकोच नहीं किया। स्वतंत्र भारत के इतिहास मे यह पहली और आखिरी घटना थी जब सरकार ने अपने ही लोगों पर बम बरसाए।

आइजोल की बमबारी हमारे इतिहास पर एक काला धब्बा है और बमबारी की बरसी पर मिजोरम ने पचास साल तक हर साल इसे एक "काला दिवस" के रूप मे मनाया।  इस घटना से दुश्मनों को रोकने के लिए संवाद की अपेक्षा जल्दी बल प्रयोग करने के लिए नए प्रधान मंत्री की स्पष्ट प्राथमिकता का पता चल गया। इन्दिरा ने संकट को हल करने के लिए एक प्रमुख साधन के रूप में सेना का उपयोग करने की एक नई प्रवृत्ति दिखाई थी। इस प्रक्रिया में वह अपने पिता या उनके परवर्ती मंत्रियों की तुलना  में भारतीय सेना के साथ एक बहुत मजबूत,स्थायी और दीर्घकालिक रिश्ते को विकसित करने की ओर आगे बढ़ी। 

स्रोत- वॉटरशेड 1967- इण्डियाज फारगाटेन विक्ट्री ओवर चाइना (प्रोबल दासगुप्ता) 

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