महाराणा प्रताप - मेवाड़ का वो राजपूत योद्धा जिसने अपने वक़्त की दुनिया की सबसे बड़ी सेना के सामने घुटने नहीं टेके !

आज से लगभग ४०० साल पहले, जब अकबर के अधीन मुगल साम्राज्य का गौरव अपने चरम पर था, राजस्थान के हल्दीघाटी गाँव के पास एक लड़ाई लड़ी गई। यह भारतीय इतिहास की सबसे चर्चित और शौर्य गाथाओं से वर्णित लड़ाइयों मे से एक लड़ाई थी। जिसमें एक तरफ शक्तिशाली मुगल युद्ध मशीनरी थी तो दूसरी तरफ मेवाड़ के सिसोदिया राजपूत वंश की सेना। मुगलों ने कड़ी जीत के बाद लड़ाई जीत ली लेकिन राणा प्रताप, जिन्होंने राजपूत सेना का नेतृत्व किया, बचने में सफल रहे। और अपने जीवन के शेष वर्षों के लिए, उन्होंने अकबर की सेनाओं के साथ युद्ध की एक नयी पद्धति का खेल खेला जिसे हम गुरिल्ला युद्ध के नाम से जानते है। अकबर ने राणा प्रताप को नष्ट करने के लिए अपने सभी संसाधनों का उपयोग किया पर वह असफल रहा। मेवाड़ उसके शासनकाल के दौरान एकमात्र ऐसा राजपूत राज्य था, जो मुगल वर्चस्व से मुक्त रहा।


मेवाड़ का वो राजपूत योद्धा जिसने अपने वक़्त की दुनिया की सबसे बड़ी सेना के सामने घुटने नहीं टेके !
महाराणा प्रताप
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इस युद्ध के नायक थे महाराणा प्रताप। 1540 मे पैदा हुये राणा प्रताप अपने पिता की मृत्यु के बाद 1572 मे राजा बने। स्वाभिमानी प्रकृति के राणा ने हमेशा मेवाड़ के पुराने गौरव को मुगलो से छीन कर पुन: वापस लाने के लिये आजीवन प्रयास किया। इसके लिये उन्होने कई छोटे-छोटे राजपूत राजाओ और जंगली तथा आस पास की भील जाति को अपनी सेना मे मिलाया। अकबर के अनेक प्रयासों और संधि प्रस्तावोम के बावजूद मेवाड़ अभी भी अकबर की आंखो मे किरकिरी की तरह चुभ रहा था। अत: उससे मेवाड़ पर आक्रमण हेतु मानसिंह के नेतृत्व मे सेना भेजी। मानसिंह को सेनापति बनाकर भेजने में उसकी चाल यह थी राजपूत किसी मुसलमान के नेतृत्व में उतने समर्पण से राणा प्रताप के विरूद्ध युद्ध नहीं करेगें जितना कि किसी राजपूत राजा नेतृत्व में। वैसे इस बात पर दरबार में कई अमीरों और मुसलमानों ने असहमति जताई पर अकबर ने किसी की एक न सुनी।

हल्दीघाटी का युद्ध 21 जून 1576 को लड़ा गया था। मान सिंह के प्रमुख मोहरा थे जगन्नाथ जिनके अधीन राजपूत युद्ध मे  शामिल थे, जबकि प्रताप के मोहरा हकीम खान सूर के नेतृत्व में अफगान पठान युद्ध मे शामिल थे। इस बहुत ही निर्णायक लड़ाई में  उनका साथी उनका पसंदीदा सफेद घोड़ा चेतक था। चेतक भी रंग-बिरंगे परिधानों से सजा हुआ था। 

हमले के पहले धावे में, प्रताप की सेना के रणबांकुरे मुगल सेना पर टूट पड़े, लेकिन उन्हें मान सिंह और कुछ अधिकारियों द्वारा समय पर रोक दिया गया।  प्रताप और मान सिंह के बीच एक व्यक्तिगत मुठभेड़ हुई। मानसिंह एक हाथी पर सवारी था। प्रताप ने मान सिंह पर अपना भाला चलाया, लेकिन वह हाथी के महावत को लगा और वह मारा गया।  चेतक, जिसने मान सिंह के हाथी के सूंड पर अपने अगले पैरो से हमला किया, उसकी सूंड मे लगायी गयी तलवार से घायल हो गया। घायल चेतक तुरंत पलटा और अपने घायल मालिक को लेकर बाहर भागा।  प्रताप का दो मुगल घुड़सवारों द्वारा पीछा किया गया था, लेकिन उनके भाई सकत (सक्त) ने उन्हें बचा लिया। उसने अपना घोड़ा प्रताप को दिया ताकी वह वहाँ से निकल सकें। राणा का सबसे प्रिय घोडा चेतक जो गंभीर रूप से घायल हो गया था, की मृत्यु हो गई।


16वीं शताब्दी का भारत
16वीं शताब्दी का भारत

हल्दीघाटी का युद्ध एक दिन तक चला।  क्षेत्र में मौजूद अकबर के दरबारी इतिहासकारों में से एक, अब्बदुल कादिर बदायुनी के अनुसार, पाँच सौ सैनिक मारे गए, जिनमें से 120 मुसलमान थे और बाकी सभी हिन्दू। दोनों सेनावो की तरफ से बराबर हानि हुई।


हल्दीघाटी की लड़ाई को इतिहास की एक अनिर्णायक लड़ाई के रूप में वर्णित किया जाता है। मुगलों के लिए यह एक अनिश्चित जीत थी जबकी मेवाड़ के लिए एक शानदार हार। इस युद्ध को नेवाड़ राज्य के सबसे यादगार एपिसोड में से एक माना जाता है क्योंकि इस युद्ध ने एक नई प्रकार के युद्ध की शुरुआत की जिसे हम रक्षात्मक युद्ध ( गुरिल्ला युद्ध) के नाम से जनते है। 

यूद्ध से बचकर परिवार के साथ अरावली जंगल में पीछे हटने के बाद, प्रताप ने गुरिल्ला युद्ध की इस पद्धति को अपनाया।  उन्होंने महसूस किया कि सुरक्षित रूप से बनाए गए पहाड़ी ठिकानो का यदि ठीक से उपयोग किए जाय तो एक छोटी से छोटी सेना भी एक बड़ी और बेहतर तरीके से सुसज्जित सेना के खिलाफ लड़ाई जीतने में सक्षम हो सकती है। 


हल्दी घाटी युद्ध 1576
हल्दीघाटी का युद्ध- मानसिंह पर हमला करते राणा 


युद्ध के परिणामों से अकबर संतुष्ट नहीं था।  वह मान सिंह से नाराज थे कि उन्होंने राणा का पीछा क्यों छोड़ दिया ? और उन्हें जीवित बचे रहने का मौका दिया। बाद में सितंबर 1576 में, जब उन्होंने गोगुन्दा की सेना की व्यथित अवस्था के बारे में सुना, तो सम्राट ने मान सिंह, के सहयोग के लिये दो अन्य सेनापति आसफ खान और काजी खान को भेजा। बाद मे विश्वासघात का आरोप लगाते हुए, उन्होंने मान सिंह और आसफ खान दोनों को दरबार से बाहर कर दिया। मान सिंह को बाद में बहाल भी किया गया था। 

अकबर 11 अक्टूबर 1576 को एक बड़ी सेना के साथ अजमेर से गोगुन्दा के लिए रवाना हुआ। वह अजमेर ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर आया था। जैसे ही महाराणा प्रताप को मुगल सेना के आगमन के बारे में पता लगा वे पहाड़ियों के पीछे बने ठिकानो मे चले गये। अकबर ने  कुतब-उद-दीन खान,  राजा भगवान दास और मान सिंह जैसे विश्वसनीय शाही अधिकारियों को उन्हे पकड़ने के लिए भेजा। पर प्रताप उनके हाथ ना लगे।

मार्च 1578 में, अकबर ने कुंभलगढ़ के किले पर कब्जा करने के लिए अपने पालक-भाई शाहबाज़ खान के साथ एक विशाल सेना भेजी जहाँ राणा प्रताप रह रहे थे। उसका राणा के साथ लंबा संघर्ष चला। उसने राणा की सेना और बचें खुचे राज्य को काफी छति पहुंचायी। अन्त में शाहबाज खान मार्च 1581 मे वापस आ गया और उसने अकबर को यह सन्देश दिया कि उसने राणा प्रताप की सेना को बर्बाद कर दिया है। 

अपने जीवनकाल में राणा को अपने प्रिय चित्तौड़ को फिर से पाने में सक्षम नहीं होने के दुख के साथ छोड़ दिया गया था।  प्रतियोगिता में परस्पर विरोधी विचारधाराएं शामिल थीं।  एक तरफ एक उत्कृष्ट सम्राट द्वारा अपने साम्राज्य को केंद्रीयकृत कर पूरे भारत में फैलाने की चाहत थी तो दूसरी तरफ, एक शानदार छापामार सेनानी और स्वाभिमानी राजपूत योद्धा, जो अपने राज्य की स्वतंत्रता को संरक्षित करने के लिए कुछ भी कर गुजरने की कोशिश में आमादा था।

लडाई के बचने बचाने और भगाने के दिनों मे वफादार भीलों ने राणा प्रताप के परिवार की महिलाओं और बच्चों को  टोकरियों में छिपाकर उन्हे बचाया, और उन्होंने उनकी रखवाली की और उनके खाने की भी व्यवस्था करते रहे। मुगलों के खिलाफ निरंतर लडाई का असर मेवाड़ पर पड़ा।  मुगल सेना द्वारा लगातार चलती लड़ाई के कारण राज्य तबाह हो गया। प्रताप ने अपने राज्या के लोगो को खेती न करने का कठोर आदेश दिया। युद्ध के परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में लोग भूख, कुपोषण और बीमारी से मर गए और कई किसान मेवाड़ छोड़कर अन्य शांतिपूर्ण पड़ोसी क्षेत्रों में बस गए। इन प्रभावों ने मुख्य रूप से प्रताप के बेटे, अमर सिंह के शासनकाल के दौरान लोगों को ज्यादा प्रभावित किया।

महाराणा प्रताप का मुकुट, ढाल और कवच
महाराणा प्रताप का मुकुट, ढाल और कवच 


उनके उत्तराधिकारी और अन्य राजपूत राज्य राणा प्रताप के उदाहरण से प्रेरित होकर मरते रहे।  पच्चीस वर्षों तक, प्रताप ने सबसे बड़े मुगल शासक अकबर के क्रोध और पराक्रम को धता बताने का साहस किया।  अकबर के समाने समर्पण से इंकार करने से मेवाड़ के बड़े हिस्से में तबाही हुई और राजकोष के ह्रास ने उनके लोगों को बहुत तकलीफ पहुंचाई। फिर भी अपने समकालीनों के विपरीत, राणा प्रताप ने मुगल दरबार में राजपूत के रूप में ऐश आराम  के जीवन की अपेक्षा एक विद्रोही के रूप में प्रतिकूलता  जीवन जीना चुना।  अगर अकबर के पास बुद्धिमान और सक्षम राजपूत थे, तो प्रताप ने भी, राजस्थान में मुगल सत्ता के ज्वार को रोकने के लिए गठबंधन बनाया।  उन्होंने इदर, सिरोही, डूंगरपुर और बांसवाड़ा के प्रमुखों को मुगल सेना द्वारा अपने राज्यों पर कब्जा कर लेने के बाद भी अकबर से विद्रोह के लिए प्रेरित किया। 

 पहाड़ियों और बीहड़ों के भौगोलिक लाभ का पूरा फायदा उठाने के लिए गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाई। यह उनका ही प्रभाव था कि उनके बाद एक और छापामार नेता ने औरंगज़ेब की सेनाओं को दक्कन में निकालने के लिये यह कला सीखी।  यह 17 वीं शताब्दी के मराठा शासक शिवाजी थे। शादियों बाद बीसवीं शताब्दी में, ब्रिटिश शासन से लड़ने वाले बंगाल के क्रांतिकारी, मुगल साम्राज्य के खिलाफ प्रताप के अथक संघर्ष से प्रेरणा लेंते रहे।

 राणा प्रताप और अकबर के बीच मेवाड़ में संघर्ष को दो असाधारण दिमागों के बीच एक प्रतियोगिता के रूप में माना जा सकता है जहां एक ओर अकबर एक अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना पर तुला हुआ था और दूसरी ओर राणा प्रताप अपनी छोटी रियासत की स्वायत्तता को बनाए रखने के लिए समान रूप से दृढ़ संकल्प थे। रोमांच और वीरता ने संघर्ष को और आकर्षक बना दिया गया था। यही कारण है की इतिहास मे इन दोनों को सोलहवीं शताब्दी के दो सबसे दिलचस्प व्यक्तित्वों के रूप मे दर्शाया गया। भले ही अकबर ने विशाल संसाधनों से युक्त अपनी सेना और उसके सबसे अच्छी सैन्य प्रतिभा के लोगों को संघर्ष में लगाया, पर वह राणा प्रताप और उनके राज्य को अपने अधीन न ला सका।  राणा प्रताप को अपने संघर्षों के कारण उम्र भर मुगलों के सामने कभी न झुकने का संतोष था।


    
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2 comments

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May 11, 2020 at 10:29 AM ×

बहुत अच्छा लिखा है आपने

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