"शांति बलपूर्वक बनाई नहीं रखी जा सकती, यह तो केवल आपसी सहमति से ही पायी जा सकती है।" अल्बर्ट आइंस्टीन
हमारा प्रयास-युद्ध के बिना विश्वशान्ति |
शांति सभी प्राणियों और जीवों को प्यारी है। इसे पाने की चेष्टा करते करते ना जाने कितने प्राणी एवं मनुष्य अपने जीवन को न्यौछावर कर देते है। हमारे आज के विकसित और सभ्य समाज का ये तथ्य सबसेे बड़ा विरोधाभास है कि इंसान जिस शांति के लिए हमेशा लालायित रहता है वह उसी से आज दिन-प्रतिदिन कितना दूर होता जा रहा है। 21वीं शादी में तेज होते तकनीकि विकास, पूंजीवाद और बढ़ते बाज़ारवाद ने शांति को व्यक्ति से और भी दूर कर दिया है। आज चाहे पृथ्वी हो या आकाश, सागर हो या नदियां, इंसान हो या जानवर सभी के सभी अशांत है। आपसी स्वार्थ,घृणा और मानवीय लोलुपता मानव समाज को निरंतर विखंडित करती जा रही है। जिस 'विश्व शांति' का संदेश हर युग, हर दौर, हर धर्म और मतों में प्राचीन काल से दिया जा रहा है उसको अमल में लाने वालों की संख्या और लोगो के प्रयास निरंतर कम होते जा रहे है।
यदि हम थोड़ा रुक कर इतिहास को देखे तो पाएंगे कि इतिहास के सभी काल खंडो में, राष्ट्र-राज्य सम्बन्धो के बीच युद्ध और शांति का मुद्द्दा हमेशा से मानव समाज के केंद्र बिंदु में रहा है। मानव प्रवृत्ति हमेशा शक्ति के अधिकतम संकेन्द्रण की रही है और यही कारण रहा है क़ि तबसे लेकर आज तक अनेको युद्ध और हिंसा की घटनाये इतिहास के पन्नो में कैद हो चुकी है। ये अशांति, हिंसा और युद्धों का दौर मध्यकाल से होता हुआ वर्तमान की विकसित और सभ्य पीढ़ियों को भी अपनी चपेट में ले चुका है। यदि हम 1815 ईस्वी में नेपोलियन की पराजय के बाद से अब तक के युद्धों की गिनती करे तो पाते है कि तबसे अबतक 350 से ज्यादा छोटे बड़े युद्ध लड़े जा चुके है। हिंसा, दंगो तथा मानवीय नरसंहार की घटनाये तो अनगिनत है। इतने के बाद भी मनुष्य रुकने का नाम नहीं ले रहा। युद्धों और अशांति का यह सिलसिला वर्तमान दौर में भी जारी है।
विख्यात दार्शनिक अरस्तु ने कहा था कि “हम युद्ध इसलिए करते हैं, कि हम शांति पूर्वक रह सकें|" अरस्तू की ये बाते आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी पहले थी। आज सीरिया, इराक, अफगानिस्तान, म्यांमार, श्रीलंका, पाकिस्तान, या यूं कहे तो समूची दुनिया किसी न किसी प्रकार की अशांति या युद्ध के साये में जी रही है। सरकारें या लोग एक दूसरे के साथ लड़ रहें है ताकि वे शांति से रह सके। "शांति के लिए युद्ध" यह अपने आप में कितना विरोधाभासी तथ्य है। इंसान-इंसान के ही खून का प्यासा हो चुका है। आखिर इस अशांति और हिंसा का कारण क्या है? क्या इंसान द्वारा कभी शांति लाने के प्रयास नहीं किये गये? या अब तक जो प्रयास किये गए उनका हासिल क्या रहा? या अब तक जो प्रयास किये गये उनमें कमिंयां कहां रह गयी थी? ये तमाम ऐसे यक्ष प्रश्न है जो हमें आज भी सोचने को मजबूर करते है।
जहां तक रही बात शांति प्रयासों की तो ऐसा नहीं है कि मानव ने कभी शांति के लिये प्रयास नहीं किये। ऐसे प्रयास हर कालखंड में जारी रहे। शांति स्थापना हेतु मानव जाति की चिंता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि सभी धर्म, धार्मिक ग्रंथ और धार्मिक त्यौहार हमे शांति का उपदेश देते है। युयुत्सा कभी भी किसी धर्म का मूल नही रही। हिंदुओं द्वारा बताया गया शांति का, मार्ग, पोप के उपदेश और पैगम्बर मुहम्मद की शिक्षाओं मे पूरी मानवता के लिए शांति सन्देश सन्निहित है।
यदि हम थोड़ा रुक कर इतिहास को देखे तो पाएंगे कि इतिहास के सभी काल खंडो में, राष्ट्र-राज्य सम्बन्धो के बीच युद्ध और शांति का मुद्द्दा हमेशा से मानव समाज के केंद्र बिंदु में रहा है। मानव प्रवृत्ति हमेशा शक्ति के अधिकतम संकेन्द्रण की रही है और यही कारण रहा है क़ि तबसे लेकर आज तक अनेको युद्ध और हिंसा की घटनाये इतिहास के पन्नो में कैद हो चुकी है। ये अशांति, हिंसा और युद्धों का दौर मध्यकाल से होता हुआ वर्तमान की विकसित और सभ्य पीढ़ियों को भी अपनी चपेट में ले चुका है। यदि हम 1815 ईस्वी में नेपोलियन की पराजय के बाद से अब तक के युद्धों की गिनती करे तो पाते है कि तबसे अबतक 350 से ज्यादा छोटे बड़े युद्ध लड़े जा चुके है। हिंसा, दंगो तथा मानवीय नरसंहार की घटनाये तो अनगिनत है। इतने के बाद भी मनुष्य रुकने का नाम नहीं ले रहा। युद्धों और अशांति का यह सिलसिला वर्तमान दौर में भी जारी है।
विख्यात दार्शनिक अरस्तु ने कहा था कि “हम युद्ध इसलिए करते हैं, कि हम शांति पूर्वक रह सकें|" अरस्तू की ये बाते आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी पहले थी। आज सीरिया, इराक, अफगानिस्तान, म्यांमार, श्रीलंका, पाकिस्तान, या यूं कहे तो समूची दुनिया किसी न किसी प्रकार की अशांति या युद्ध के साये में जी रही है। सरकारें या लोग एक दूसरे के साथ लड़ रहें है ताकि वे शांति से रह सके। "शांति के लिए युद्ध" यह अपने आप में कितना विरोधाभासी तथ्य है। इंसान-इंसान के ही खून का प्यासा हो चुका है। आखिर इस अशांति और हिंसा का कारण क्या है? क्या इंसान द्वारा कभी शांति लाने के प्रयास नहीं किये गये? या अब तक जो प्रयास किये गए उनका हासिल क्या रहा? या अब तक जो प्रयास किये गये उनमें कमिंयां कहां रह गयी थी? ये तमाम ऐसे यक्ष प्रश्न है जो हमें आज भी सोचने को मजबूर करते है।
जहां तक रही बात शांति प्रयासों की तो ऐसा नहीं है कि मानव ने कभी शांति के लिये प्रयास नहीं किये। ऐसे प्रयास हर कालखंड में जारी रहे। शांति स्थापना हेतु मानव जाति की चिंता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि सभी धर्म, धार्मिक ग्रंथ और धार्मिक त्यौहार हमे शांति का उपदेश देते है। युयुत्सा कभी भी किसी धर्म का मूल नही रही। हिंदुओं द्वारा बताया गया शांति का, मार्ग, पोप के उपदेश और पैगम्बर मुहम्मद की शिक्षाओं मे पूरी मानवता के लिए शांति सन्देश सन्निहित है।
भक्ति काल और पुनर्जागरण काल
में भी शांति और सद्भाव का प्रचार प्रसार किया गया। सूफी संतो ने अपने संदेशो प्रेम और आपसी सौहार्द्य की शिक्षा दी. इन सबके बावजूद भी मानव ने
शांति के महत्व को नहीं समझा। औद्योगीकरण, बाजारवाद, साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, और अति राष्ट्रवाद ने एक देश
को दूसरे देश के सामने लाकर खड़ा कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि पूरी मानवता ने बीसवी
शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ही सबसे दुर्भाग्यपूर्ण और अत्यधिक विनाशकारी दो विश्व
युद्धों का सामना किया। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने पूरी तरह से युद्ध की बुराई के
खिलाफ शांति के गुण के सर्वोच्च महत्व को महसूस किया। संपूर्ण विश्व ने इन युद्धों की जो विभीषिका देखी वह दिल दहलाने वाली थी| मानवता के रक्त-रंजित हिस्से
एवं लोगो के कंकाल आज भी कई सौ युद्धक्षेत्रों में बिखरे हुए है।
हिरोशिमा और नागासाकी की धरती पर जो कुछ हुआ उसे तो देखकर पूरी मानवता शांति, शांति और शांति के लिए चिल्लाने
लगी ।
हथियारों एवं शक्ति के बल से किसी व्यक्ति, समाज या देश के लोगो की आकांक्षाओं ,जरूरतों, स्वतन्त्रता और प्रतिरोध को अल्प अवधि के लिए दबाया जा सकता है, लेकिन इसकी परिणति एक नए संघर्ष की वापसी से होती है और यह तबतक जारी रहती है जबतक दोनों किसी एक उपयुक्त समझौते तक न पहुँच जाये। जैसा की हमने देख भी रहे है कि बर्षो के अमेरिकी और यूरोपीय दबाव के बावजूद भी ईरान , सीरिया और उत्तर कोरिया को रोका नहीं जा सका है। अंततः इन मतभेदों के अंत और शांति के लिए सभी पक्षों को समझौते की मेज पर आना पड़ा । अमेरिकी राष्ट्रपति और उत्तर कोरियाई शासक ने परस्पर लंबे समय तक चली युद्धः की धमकी और उत्तेजनापूर्ण बयानों के बाद अंततः कोरियाई प्रायद्वीप में बढ़ते संकट को हल करने के लिए बातचीत करने का फैसला किया। इससे पहले ईरान के साथ भी अंत में समझौते के तहत शांति लाने का प्रयास किया गया । बेहतर समझ के साथ समझौते की मेज पर आने के अलावा उनके पास कोई दूसरा उपयुक्त चारा भी नहीं था|
हमें यह समझने की जरूरत है कि समझ का अर्थ केवल समझौता नहीं है। इसका अर्थ अपने आप में काफी व्यापक है । जैसे जैसे हम किसी व्यक्ति , समाज या देश को समझते है हम उनकी भावनाओ , जरूरतों और आकांक्षाओं को भी समझने लगते है। फिर धीरे धीरे हम ऐसी स्थिति में आ जाते है कि हम अपनी तमाम बाते और सन्देश उन्हें आसानी से समझाने में कामयाब हो जाते है और फिर शांति और सद्भाव स्वयं ही उस समाज या देश के बीच आने लगता है। भारतीय इतिहास इस तरह की कई स्थितियों, शासकों और महापुरुषों के उदहारण से भरा पड़ा है। सम्राट अशोक, गौतम बुद्धा, हर्षवर्धन और अकबर जैसे कई उदहारण हमारे सामने है। अशोक ने कलिंग युद्ध के भीषण रक्तपात के बाद यह समझा कि शक्ति के बल पर समाज और देश में शांति और सौहार्द्य नहीं लाया जा सकता। फिर उसने शांति , सौहार्द्य और धर्म से लोगो को जीतने पर बल दिया और "भेरी घोष की जगह धम्म घोष" को बढ़ावा दिया। इसी तरह, सम्राट अकबर ने अपने काल में भारी सैन्य जीत के बावजूद, धार्मिक सहिष्णुता, समृद्धि और शांति हेतु कई प्रयास किये । इसके लिए उसने विरोधी राजाओ से मैत्री और शादी संबंध बनाये और अन्य धर्मों के प्रति सम्मान का दृष्टिकोण अपनाया ।
इक्कीसवी सदी के लोकतान्त्रिक, मानवतावादी, कल्याणकारी और समावेशी विकास के दौर में बिना बेहतर समझ के केवल शक्ति के बल पर शांति कि कल्पना करना स्वयं में बेमानी है। शांति केवल विचारो और दिखावो से कभी नहीं आ सकती उसके लिए हमे व्यक्ति और समाज के रूपांतरण के लिए काम करना होगा। हमें समाज के सबसे छोटी इकाई व्यक्ति से शुरुआत करनी होगी। इसके लिए हमें व्यक्ति को शांतिपूर्ण बनाने के तरीके खोजने होंगे वर्ना विश्व शांति के बारे में बात करना महज एक किस्म का मनोरंजन प्रतीत होगा। एक व्यक्ति के तौर पर इंसान पर ध्यान दिए बिना, दुनिया में किसी तरह का बदलाव लाने की कोशिश करना हमेशा और अधिक समस्याओं को न्यौता देता है। इसलिए यह जरूरी है कि हम व्यक्ति कि आधारभूत जरूरतों, उनकी भावनाओ, उनके विचारो को समझे और उनकी पूर्ती का प्रयास करे|
यदि हम अबतक के शांति स्थापना के प्रयासों पर नज़र डाले तो पाते है कि ज्यादातर मामलों में शांति स्थापना के प्रयास बल द्वारा प्रेरित थे। और बल द्वारा स्थापित शांति क्षणिक होती है क्योकि इसमें लोगो की भावनाओ , जरूरतों , समस्याओ , अधिकारों आदि का खयाल तो बिलकुल नहीं किया जाता और यही कारण रहा है कि अबतक के सारे प्रयास असफल रहे है। शांति लोगों की समस्याओं, दुःखों और पीड़ाओं को समझने और उनकी सराहना करके ही स्थापित कि जा सकती है, परन्तु दुर्भाग्य से कोई भी नेतृत्व अब तक ऐसा प्रयास करने में विफल रहा है। शांति की सतत स्थापना सुनिश्चित करने के लिए लोगो के बीच समझ, सहिष्णुता और विनम्रता बढ़ाने की आवश्यकता होती है। मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने बर्मिंघम जेल से भेजे अपने एक पत्र में लिखा था कि " सच्ची शांति केवल तनाव की अनुपस्थिति नहीं है अपितु यह न्याय की उपस्थिति भी है।" दूसरे शब्दों में कहे तो वास्तविक शांति का अर्थ केवल समस्याएं खत्म होने से कहीं अधिक है: शांति का निष्पक्ष होना ।
हथियारों एवं शक्ति के बल से किसी व्यक्ति, समाज या देश के लोगो की आकांक्षाओं ,जरूरतों, स्वतन्त्रता और प्रतिरोध को अल्प अवधि के लिए दबाया जा सकता है, लेकिन इसकी परिणति एक नए संघर्ष की वापसी से होती है और यह तबतक जारी रहती है जबतक दोनों किसी एक उपयुक्त समझौते तक न पहुँच जाये। जैसा की हमने देख भी रहे है कि बर्षो के अमेरिकी और यूरोपीय दबाव के बावजूद भी ईरान , सीरिया और उत्तर कोरिया को रोका नहीं जा सका है। अंततः इन मतभेदों के अंत और शांति के लिए सभी पक्षों को समझौते की मेज पर आना पड़ा । अमेरिकी राष्ट्रपति और उत्तर कोरियाई शासक ने परस्पर लंबे समय तक चली युद्धः की धमकी और उत्तेजनापूर्ण बयानों के बाद अंततः कोरियाई प्रायद्वीप में बढ़ते संकट को हल करने के लिए बातचीत करने का फैसला किया। इससे पहले ईरान के साथ भी अंत में समझौते के तहत शांति लाने का प्रयास किया गया । बेहतर समझ के साथ समझौते की मेज पर आने के अलावा उनके पास कोई दूसरा उपयुक्त चारा भी नहीं था|
हमें यह समझने की जरूरत है कि समझ का अर्थ केवल समझौता नहीं है। इसका अर्थ अपने आप में काफी व्यापक है । जैसे जैसे हम किसी व्यक्ति , समाज या देश को समझते है हम उनकी भावनाओ , जरूरतों और आकांक्षाओं को भी समझने लगते है। फिर धीरे धीरे हम ऐसी स्थिति में आ जाते है कि हम अपनी तमाम बाते और सन्देश उन्हें आसानी से समझाने में कामयाब हो जाते है और फिर शांति और सद्भाव स्वयं ही उस समाज या देश के बीच आने लगता है। भारतीय इतिहास इस तरह की कई स्थितियों, शासकों और महापुरुषों के उदहारण से भरा पड़ा है। सम्राट अशोक, गौतम बुद्धा, हर्षवर्धन और अकबर जैसे कई उदहारण हमारे सामने है। अशोक ने कलिंग युद्ध के भीषण रक्तपात के बाद यह समझा कि शक्ति के बल पर समाज और देश में शांति और सौहार्द्य नहीं लाया जा सकता। फिर उसने शांति , सौहार्द्य और धर्म से लोगो को जीतने पर बल दिया और "भेरी घोष की जगह धम्म घोष" को बढ़ावा दिया। इसी तरह, सम्राट अकबर ने अपने काल में भारी सैन्य जीत के बावजूद, धार्मिक सहिष्णुता, समृद्धि और शांति हेतु कई प्रयास किये । इसके लिए उसने विरोधी राजाओ से मैत्री और शादी संबंध बनाये और अन्य धर्मों के प्रति सम्मान का दृष्टिकोण अपनाया ।
इक्कीसवी सदी के लोकतान्त्रिक, मानवतावादी, कल्याणकारी और समावेशी विकास के दौर में बिना बेहतर समझ के केवल शक्ति के बल पर शांति कि कल्पना करना स्वयं में बेमानी है। शांति केवल विचारो और दिखावो से कभी नहीं आ सकती उसके लिए हमे व्यक्ति और समाज के रूपांतरण के लिए काम करना होगा। हमें समाज के सबसे छोटी इकाई व्यक्ति से शुरुआत करनी होगी। इसके लिए हमें व्यक्ति को शांतिपूर्ण बनाने के तरीके खोजने होंगे वर्ना विश्व शांति के बारे में बात करना महज एक किस्म का मनोरंजन प्रतीत होगा। एक व्यक्ति के तौर पर इंसान पर ध्यान दिए बिना, दुनिया में किसी तरह का बदलाव लाने की कोशिश करना हमेशा और अधिक समस्याओं को न्यौता देता है। इसलिए यह जरूरी है कि हम व्यक्ति कि आधारभूत जरूरतों, उनकी भावनाओ, उनके विचारो को समझे और उनकी पूर्ती का प्रयास करे|
यदि हम मूल्याङ्कन करें कि हम दुनिया में कैसी स्थिति उत्पन्न कर रहे हैं, तो हम
पाएंगे कि हमने जो नींव रखी है, उसी से
यह पक्का आभास हो जाता है कि इस पृथ्वी पर बिल्कुल भी शांति नहीं होने वाली। इस
बुनियाद के तमाम पहलू है जैसे कि धार्मिक , सामाजिक ,राजनितिक , आर्थिक
इत्यादि। इसमें सबसे अहम पहलू यह है कि हम आर्थिक पहलू को मानव जीवन का सबसे अहम
हिस्सा बनाते जा रहे हैं। मानव भौतिक वादी प्रवृत्ति से ओत-प्रोत हो चुका है।
भौतिकवाद ने इंसान को इतना पागल बना दिया है कि वह सबकुछ अपने कब्जे में करने के लिए बेताब है। आज की दुनिया में इंसान के लिए प्रेम, खुशी, भाईचारा ,आजादी, संगीत और
नृत्य, कुछ भी
महत्वपूर्ण नहीं रह गया है।
वर्तमान में इंसान के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज अगर कुछ है तो वह है उसकी आर्थिक जरूरते। एक बार जब हम अर्थ को सबसे अहम चीज बना देते हैं, तो लड़ाई और अशांति को टालना असंभव हो जाता है। चूंकि पृथ्वी पर संसाधन सीमित मात्रा में हैं और हम निरंतर उन संसाधनों का अधारणीय और अन्यासंगत तरीके से दोहन करते जा रहे है। इसी अंधी दौड़ में हमने लाखों वर्गकिलोमीटर में विस्तृत जंगल निगल लिए, विभिन्न जल स्रोतों को प्रदूषित और विनष्ट कर दिया, मिट्टी, नदियों, महासागरों और वायु को भी प्रदूषित करके रख दिया है। आर्थिक खुशहाली की तलाश में आज के समाज में अशांति भरी पड़ी है। हमारा आज का अस्तित्व लिप्सा, हिंसा और अशांति पर टिका हुआ है। हम, हमारे व्यवहार, हमारा समाज और संस्कृति निरंतर हिंसक और अशांत होते जा रहे हैं।
आज के इस विश्व व्यापी सामाजिक, आर्थिक, राजनितिक, पर्यावरणिक दौर में हम शांति कि
उम्मीद तबतक नहीं कर सकते जब तक कि हम इसे बदलने के लिए कठोर प्रयास नहीं करते।
खोखले नारों और बातों से दुनिया में शांति नहीं आनेवाली।इसके लिए हमें निरंतर इंसानों को शांतिपूर्ण बनाने की जीवनपर्यंत कोशिश करनी होगी। अगर हम समाज के
सभी क्षेत्रो में खास तौर पर राजनितिक, आर्थिक, सामाजिक और वैचारिक में लोगो की भागीदारी और नेतृत्व सुनिश्चित नहीं कर सकते तो आगे शांति स्थापना असंभव है। हमें
समाज से गरीबी, असमानता, भुखमरी, कट्टरता, अपराध, भ्रष्टाचार एवं भय का
समूल नाश करना होगा। इसके लिए तमाम क्षेत्रों में चाहे वह कारोबार हो, राजनीति
हो, उद्योग
हो या नौकरशाही सबमे जिम्मेदार
पदों पर बैठे लोगों के बीच बेहतर समझ एवं समन्वय का भाव पैदा करना होगा ।
4 comments
Click here for commentsप्रभावशाली लेख❤।
Reply' शांति का निष्पक्ष होना बहुत जरूरी है'.. सार है इस लेख का..
Replyसुन्दर व समीचीन लेख
बहुत बहुत धन्यवाद अमरेन्द्र
Replyजी बहुत बहुत आभार।
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