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मसीहा ( खलील ज़िब्रान ) |
एक युवक ने प्रश्न किया : मित्र कौन है?
अलमुस्तफा ने उत्तर दिया : तुम्हारा मित्र ही तुम्हारे आवश्यक कार्यों की पूर्ति का साधन बनता है।
वह तुम्हारा क्षेत्र है, जिसमें तुम प्रेम से बीज वपन करते हो और कृतज्ञतापूर्ण हृदय के साथ फल पाते हो।
वही तुम्हारे अन्न और आवास की रिक्तता को पूर्ण करता है |
क्योंकि देह और मन भूखे होते हैं तो तुम उसकी शरण जाते हो।
जब तुम्हारा मित्र तुम्हारे सामने मन का भेद कहता है तो तुम ‘ना’ कहने में संकोच नहीं करते, और न ही ‘हां’ कहने में भय मानते हो।
और जब वह चुप होता है तो भी तुम्हारा हृदय उसके हृदय की बात सुनने को तत्पर रहता है। क्योंकि मैत्री में सब विचार, आशाएं और इच्छाएं मौन में ही जन्म लेती और अन्तर के अप्रकट आनन्द में ही बंट जाती हैं।
मित्र से विदा होते समय शोक प्रकट न करो। क्योंकि जिन गुणों के कारण तुम उनसे प्रेम करते हो, वे वियोग में और भी स्पष्ट हो जाएंगे, जैसे पर्वतारोहो के लिए पर्वत का सौंदर्य तल की भूमि से अधिक मनोरम हो जाता है।
मैत्री का लक्ष्य केवल आत्मभाव की वृद्धि ही होना चाहिए। क्योंकि जो प्रेम अपने ही रहस्य–कोष के अनावरण के अतिरिक्त स्वार्थ की अपेक्षा रखता है वह प्रेम नहीं, एक पाश है; जिसमें केवल निरर्थक वस्तुएं ही फंसती हैं।
अपनी सर्वश्रेष्ठ निधि से ही मित्र की वन्दना करो। जीवन के अवरोह में वह तुम्हारा संगी है तो आरोह के सुखद क्षणों में भी उसे भागीदार बनाओ। व्यर्थ काल–क्षेप करने के अर्थ हो तुम मित्र की तलाश मत करो।
बल्कि समय के सर्वश्रेष्ठ सद्व्यय के लिए ही उसका स्मरण करो। कारण, तुम्हारी आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक होना उसका धर्म है–न कि तुम्हारी रिक्तता को भरना।
मैत्री की मधुरता में उल्लास भरने दो। क्योंकि छोटी–छोटी वस्तुओं के हिमकणों में ही हृदय का प्रभात उदित होता है।
और वह उससे ताजगी भी लेता है।
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